pratilipi-logo प्रतिलिपि
हिन्दी

स्व-विकास

प्रतिष्ठित प्राचार्य, जाने-माने कवि, बेबाक समीक्षक और निश्पक्ष संपादक डाॅ. वेद प्रकाश पाण्डेय, वैसे तो हिंदी साहित्य में किसी के परिचय के मोहताज नहीं हैं, मगर उनके साहित्यिक व्यक्तित्व के अनेक अनछुए पहलू हैं, जिसके विषय में जानने के लिए मेरा मन करीब ग्यारह वर्षों से बेचैन रहा है। वैसे तो वे रहने वाले बालापार, गोरखपुर के हैं, परन्तु वे किसान स्नात्कोत्तर महाविद्यालय सेवरही, तमकुहीरोड (कुशीनगर) में प्राचार्य रहे। उनको जानने वाले उनकी भावुकता, संवेदना, सृजनधर्मिता, सहानुभूति और मानवता के कायल हैं। ...
3.9 (41)
2K+ पाठक संख्या
“लड़कियाँ खुद चाँहती हैं कि हम उनके साथ वो सब करे।” “लड़कियाँ खुद छोटे — छोटे कपड़े पहनकर बाहर घूमती हैं हमें उकसाती हैं।” “लड़कियाँ क्‍यों देर रात तक सड़को में घूमती हैं।” “लड़कियाँ क्‍यों अकेले कहीं जाती हैं।” “लड़कियाँ क्‍यों लड़को की बराबरी करती हैं।” “लड़कियाँ की औकात ही क्‍या हैं। क्‍यों हमारे मुँह लगति हैं ‚हमें पलट कर जवाब देती हैं।” “लड़कियाँ कि हिम्‍मत कैसे होती है हमें मना करने कि।” “लड़कियाँ घर के अन्‍दर ही अच्‍छी लगती हैं।” ये वो विचार हैं जो ज्‍यादातर बल्‍तकार अपराधी‚ अपराध करने ...
4.4 (206)
5K+ पाठक संख्या
(1) 1792 के पहले यूरोप तथा अमेरिका में गुलामों का निर्बाध व्‍यापार होता था। हब्शियों और नीग्रो लोगों को पकड़-पकड़कर यूरोपियन व्‍यापारी यूरोप तथा अमेरिका के रईसों और जमींदारों के हाथ बेचा करते थे। इन गुलामों की हालत क्‍या थी इसके कहने की आवश्‍यकता नहीं। उनसे हर तरह से मालिक लोग काम लेते थे और यूरोप और अमेरिका की सभ्‍य सरकारों ने इस व्‍यापार को कानूनों द्वारा सुरक्षित बना रखा था। गुलाम किसी तरह से भी भाग नहीं सकते थे। मनुष्य जाति के इतिहास में सभ्‍य मनुष्‍यों के नाम पर गुलाम व्‍यापार से अधिक कलंक ...
4.5 (9)
824 पाठक संख्या