<div id="yui_3_9_1_18_1410638658441_64">
<p><strong>मूल नाम</strong><strong> :</strong> भारतेन्दु हरिश्चंद्र</p>
<p><strong>जन्म</strong><strong> :</strong> 9 सितंबर 1850, वाराणसी(उत्तर प्रदेश)</p>
<p><strong>देहावसान :</strong> 7 जनवरी 1885, वाराणसी(उत्तर प्रदेश)</p>
<p><strong>भाषा</strong><strong> :</strong> हिन्दी</p>
<strong>विधाएँ :</strong> कविता, नाटक, पत्रकारिता<br />
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<div id="yui_3_9_1_18_1410638658441_64">भारतेन्दु हरिश्चंद्र आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह माने जाते हैं, उन्होंने 'हरिश्चंद्र पत्रिका', 'कविवचन सुधा' और 'बाल विबोधिनी' पत्रिकाओं का संपादन भी किया। हिन्दी साहित्य में इनके अमूल्य योगदान के कारण १८५७ से १९०० तक के काल को भारतेन्दु युग के नाम से जाना जाता है।</div>
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<div id="yui_3_9_1_18_1410638658441_64">34 साल की अल्पायु में ही देहावसान होने के बावजूद, भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने इतनी विधाओं में अनुपम साहित्य रचना की है कि अनेकानेक साहित्यकार दशकों तक इनके प्रभाव में रहे। इन्होने खड़ी बोली हिन्दी को उर्दू से प्रथक उसके शुद्ध रूप में प्रचलित किया, उनकी ये पंक्तियाँ आज भी मात्र भाषा के महत्वा को इंगित करने के लिये पढ़ी जाती हैं: </div>
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<p style="margin-left: 80px;">निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।</p>
<p style="margin-left: 80px;">बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल॥</p>
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