अपने घर के बगीचे में कांपते हाथों से फूलों में पानी सीजती वह बूढ़ी औरत कुछ बुदबुदा रही थी। ऐसे ही... ऐसे ही... सींचा था उसे भी। पानी से..? नहीं..खून से,मेरा अंशु,मेरा बेटा, यह कहते हुए उस बूढ़ी ...
वैसे अगर ऋतु के भूतकाल के विषय में अगर आप आगे भी कोई स्टोरी लिखती है तो मैं उसे जरूर पढ़ना चाहूंगा मेरा कहने का मतलब है कि शायद इसे लेकर आप कोई विस्तृत कहानी भी लिख सकते हैं।
ऐसा इसलिए भी कह रहा हूं कि कहीं ना कहीं मुझे ऋतु के बारे में भी जानने की जिगनासा मन में पैदा हुई इस कहानी को पढ़ते हुए।
सच मे क्या बेहतरीन रचना थी!
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बहुत सुंदर कहानी, सच ही तो है आज के बच्चे, अपने माँ पिता को तड़पने के लिए यूँ ही छोड़ जाते है, काश वो समझ पाते कि असली सफलता माँ पिता की खुशी में ही है। रितु ने बहुत ही अच्छा काम किया। काश कि लोगो मे इतनी संवेदनशीलता हो कि वो किसी दूसरे का दर्द समझ सके।
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