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@जीरो माइल

4.4
8439

जोर से हवा का झोंका आया और उसके सिर से पल्लू खिसक कर कंधे पर. देर से लाउडस्पीकर पर “हरे रामा हरे कृष्णा” का जाप सुन कर खेत में ही खड़ी रह गई. पीली सरसो के साथ पीली स्त्री का मेल मुकेश को बहुत भाता ...

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गीताश्री

स्त्रीवादी पत्रकार और कथाकार जन्म- मुजफ्फरपुर (बिहार) ,सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार (वर्ष 2008-09) के लिए रामनाथ गोयनका पुरस्कार से सम्मानित गीताश्री पत्रकारिता के साथ-साथ साहित्य की दुनिया में भी बेहद सक्रिय हैं। उनकी कहानियां अब तक हंस, नया ज्ञानोदय, इंडिया टुडे, आउटलुक, शुक्रवार, लमही, पर्वतराग, इरावती, सृजनलोक, निकट, इंडिया न्यूज , पाखी, संबोधन, प्रेरणा, कथादेश अनेक जैसी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। इन दिनों इनकी कहानियां चर्चा के केंद्र में है। अपनी अलग साहसिकता की वजह से और अलग स्त्री संवेदना की बात करने वाली कहानियों ने आलोचको को भौचक्का कर दिया है। उन्हें कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों और सम्मानों से नवाजा जा चुका है। औरत की अस्मिता पर निरंतर लेखन के लिए चर्चित हो चुकीं गीताश्री को देश के कई प्रतिष्ठित संस्थानों की ओर से फेलोशिप मिल चुके हैं जिनमें नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2008), इन्फोचेंज मीडिया फेलोशिप (2008), नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया मीडिया फेलोशिप (2010), सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (2010) और पैनोस साउथ एशिया मीडिया फेलोशिप प्रमुख हैं। रचना क्षेत्र चुनौतीपूर्ण राजनीतिक पत्रकारिता से लेकर साहित्य, सिनेमा, कला-संस्कृति, स्त्री-विमर्श और सामाजिक मसलों पर अच्छी पकड़। पत्रकारिता से जुड़े सभी माध्यमों में काम करते हुए आदिवासी लड़कियों की तस्करी, नक्सलवाद बनाम सलवा जुडूम, जलवायु परिवर्तन और डूबता सुंदरवन, तंबाकू उत्पादों का समाज पर प्रभाव, बंधुआ मजदूरी, बीड़ी उद्योग और बीड़ी मजदूरों की व्यथा पर गहन और शोधपरक रिपोर्टिंग। पुरस्कार 1. झारखंड और छत्तीसगढ़ से आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर रिपोर्टिंग के लिए रामनाथ गोयनका सर्वश्रेष्ठ हिंदी पत्रकार पुरस्कार (2008-09) –तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा प्रदान. 2. प्लेसमेंट एजेंसियों की आड़ में मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर सर्वश्रेष्ठ खोजपरक रिपोर्टिंग के लिए यूएनएफडीए-लाडली मीडिया अवार्ड (2009-2010) 3. छत्तीसगढ़, झारखंड और मध्य प्रदेश की आदिवासी महिलाओं की तस्करी पर शोध के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया, मीडिया फेलोशिप (2008) 4. तंबाकू उत्पादों पर सचित्र चेतावनी का प्रभाव पर शोध के लिए नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया, मीडिया फेलोशिप (एनएफआई) पुरस्कार (2009-2010) 5. छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में नक्सलवाद के प्रभाव के कारण आदिवासियों के पलायन पर शोध के लिए इन्फोचेंज मीडिया फेलोशिप (2008) 6. पश्चिम बंगाल के तटवर्ती इलाके सुंदरबन पर जलवायु के प्रभाव की सनसनीखेज रिपोर्टिंग के लिए सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की नौवीं मीडिया फेलोशिप (2010) 7. राजस्थान में बंधुआ मजदूरों की व्यथा पर रिपोर्टिंग के लिए ग्रासरूट फीचर अवार्ड 8. महिलाओं के मुद्दों पर रिपोर्टिंग के लिए न्यूजपेपर एसोसिएशन ऑफ इंडिया की ओर से पुरस्कार 9. सर्वश्रेष्ठ फिल्म रिपोर्टिंग के लिए मातृश्री पुरस्कार 10. फिल्म तथा अन्य कला विषयों की उत्कृष्ट समीक्षा के लिए अभिनव रंगमंडल, उज्जैन की ओर से राष्ट्रीय कला समीक्षा सम्मान 11.आधी आबादी वीमेन अचीवर्स अवार्ड-2010 12.28वां एस,राधाकृष्णन स्मृति राष्ट्रीय मीडिया सम्मान-2012 13. अंतराष्ट्रीय सृजन गाथा सम्मान (थाईलैंड) प्राप्त 14. भारत सरकार के भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार से सम्मानित 15. इलाहाबाद बैंक द्वारा साहित्य एवं कला क्षेत्र में दिया जाने वाला इला त्रिवेणी सम्मान-वर्ष-2012-2013 कृतियां- अब तक प्रकाशित पुस्तकें 1. कविता जिनका हक (कविता संग्रह), राजेश प्रकाशन, हिंदी अकादमी से सहयोग प्राप्त-1991 2. स्त्री आकांक्षा के मानचित्र (स्त्री विमर्श), सामयिक प्रकाशन, सेकेंड संस्करण 3. 23 लेखिकाएं और राजेंद्र यादव (संपादन और संयोजन), किताब घर , बेस्ट सेलर 4. नागपाश में स्त्री ( स्त्री-विमर्श, संपादन), राजकमल प्रकाशन , सृजनगाथा अंतराष्ट्रीय साहित्य सम्मान, बैंकाक, थाईलैंड प्राप्त कृति 5. औरत की बोली (स्त्री विमर्श), सामयिक प्रकाशन -2011 –भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार, भारत सरकार प्राप्त 6.सपनो की मंडी (आदिवासी लड़कियों की तस्करी पर आधारित) वाणी प्रकाशन-2012 7. पहला कहानी संग्रह, “प्रार्थना के बाहर और अन्य कहानियां” (वाणी प्रकाशन-2013) 8. बैगा आदिवासियो की गोदना कला पर एक सचित्र शोध पुस्तक “देहराग”(वन्या प्रकाशन) से प्रकाशित 9.कल के कलमकार( बच्चो की संपादित कहानियां)-शिल्पायन बुक्स-2013 10.स्त्री को पुकारता है स्वप्न (संपादित कहानी संग्रह-) वाणी प्रकाशन-2013 11.कथा रंगपूर्वी (संपादित कहानी संग्रह) शिल्पायन बुक्स-शीघ्र प्रकाश्य-2015 (विश्व पुस्तक मेला) 12. हिंदी सिनेमा-दुनिया से अलग दुनिया (संपादित-शिल्पायन बुक्स-2014) 13.दूसरा कहानी संग्रह-"स्वप्न, साजिश और स्त्री" प्रकाशित , ( सामयिक प्रकाशन)-2015

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    Rachna Tyagi
    22 सितम्बर 2017
    ज़ीरो माईल... अर्थात् मंज़िल बहुत नज़दीक़ है.. शीर्षक का मंतव्य सिद्ध करती हुई गीताश्री जी की कहानी एक साथ कई पहलुओं पर प्रकाश डालती है. बिहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई इस कहानी में वहाँ की बोली-बानी का भरपूर रस टपकता है. जहाँ एक ओर भोजपुरी लोकगीतों का सार्थक उपयोग कथानक की रोचकता को बढ़ाता है, वहीं बेरोज़गारी, नशाबंदी और स्त्री के एकांकीपन की व्यथा आदि पक्षों को भी मज़बूती से सामने रखा गया है.. कहानी में उन नव ब्याहताओं का दर्द साफ़ झलकता है, जिनका पति मेक इन इंडिया के बुलंद नारों और दस बाई बारह के होर्डिंग्स से चमकते स्वदेश में रोज़गार न होने के कारण कोसों दूर खाड़ी देशों में अमानवीय शर्तों पर नौकरी करने के लिये विवश है. ऐसे में एक नववधु के अरमान कितनी ख़ामोशी से चकनाचूर होते हैं, कैसे उसकी प्रतीक्षा अन्तहीन हो जाती है, उसके मायके और ससुरालवाले किस तरह से उसका दोहन करते हैं ...इन सब परिस्थितियों को मार्मिकता से उकेरा गया है. लेकिन परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने की बजाय नायिका जिस जिजीविषा से एक उद्देश्यहीन और पल-पल छीजते जीवन की परत को चीरकर एक सार्थक व उद्देश्यपूर्ण भविष्य को चुनती है, वह साहसिक निर्णय उसके जीवन को कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष की ओर ले जाता है. इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण निर्णय वह लेती है -- जीवनसाथी शब्द के बंधन से मुक्त होकर एक नि:स्वार्थ और विश्वसनीय संबंध की चाहत का, जिसे मैत्री या महज़ साथ का नाम दिया जा सके..या यूँ कहें, कि जीवनसाथी शब्द सरीखे भ्रमजाल से निकल जाने का, अपनी ज़िंदग़ी अपने तरीक़े से जीने का... क्योंकि अब वह अपनी डोर किसी और के हाथ में न देकर अपने ही हाथ में रखना चाहती है. इसमें उसे किसी प्रकार की कोई दुविधा नहीं, न ही उसके पास इस संबंध में पुरुष की सहमति/असहमति के उत्तर की प्रतीक्षा का समय.....! स्त्री-विमर्श का बेहतरीन उदाहरण..! शराब जैसी बुराई के बन्द होने के पीछे महिलाओं का हाथ मानते हुए उनके प्रति पुन: दुर्व्यवहार के माध्यम से पुरुष मानसिकता की गिरावट का आभास भी कहानी में झलकता है. कम शब्दों में बँधे होकर भी पाठक को सामाजिक मुद्दों के व्यापक धरातल पर ला खड़ा करने वाली एक रोचक कहानी के लिये गीता जी को बधाई...
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    RN Tripathi
    23 सितम्बर 2017
    "जीरो माईल" एक अद्भुत कथा है । जिसने गाँव देखा है सरसो के खेत देखें हैं, खेतों में रखवाली के लिए बने मचान देखे है, धूल उड़ाती पगडंडिया देखी हैं --- वे सब खो जाएंगे , इस कहानी में ।गांव में बिताए पल जीवंत करती यह कहानी । भोजपुरी के उन शब्दों का प्रयोग जो कि निम्न टपके में आम है पूरी ईमानदारी के साथ लेखिका ने किया है। मैं तो सिवान रहा हूँ जीरादेई स्टेशन से भी परिचित हूँ , और गाँव कि पृष्ठ भूमि के कारण गाँव के उस वातावरण से भी परिचित हूँ जिसे लेखिका ने अपनी कथा में जीवंत कर दिया है। स्त्री कहीं कि भी हो उसकी एक ही समस्या है , नायिका के मायके कि गरीबी उसे बेटी से ज्यादा गृहणी बना देती है, फिर जवान होते शरीर की भूख ककड़ी के खेत मे सरका देती है , मार पीट .. किसी तरह माँ को मना सुनहले सपने सजा शादी करने में सफल हो ससुराल आ जाती है । लेकिन यहां भी पति पैसों के लिए मेहंदी छूटने से पहले ही बिदेश चला जाता है । घर मे तड़पती नायिका ..एक मजदूरनी की तरह घर के काम निपटाती रहती है। टेंपो से पर्चे बांटने वाले से कुछ उम्मीद जगती है तो वह भी केवल मोबाइल तो गिफ्ट दे जाता है , लेकिन ..... पति विदेश फंस चुके था देश मे कुछ नही था । बस अंधेरा .. लेकिन गीता जी की नायिका अंधेरे को चीर "बदलाव" की ओर तेजी से बढ़ती है --- उसे सास स्वसुर या प्रेमी कोई नही रोक पता , उसका आत्मविश्वास सबको किंकर्तव्य विमूढ़ बना जाता है।। एक सफल विजेता कहानी । गाँव की सौंधी मिट्टी की खुशबू से तर । गीताश्री जी ने फिर एक बार कमाल कर दिया है ।।।
  • author
    Prabhat Milind
    28 अक्टूबर 2017
    अद्भुत कहानी. गांव की नारी जब अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाए तो माना जा सकता है कि उनके सशक्त होने की राह में बुनियाद की पहली ईट रखी जा चुकी है. भाषा बेलाग है, कथानक मज़बूत और कसा हुआ. गीता श्री कहानी शुरु करने से पहले उसका आखिरी वाक्य लिख चुकी होती हैं. उनकी लेखकीय वैचारिकी भी भटकाव-रहित है. वह आज स्त्री-अधिकारों की एक ज़रुरी और मुखर आवाज़ हैं. किरदार के संवाद लक्ष्य के मुताबिक हैं और घटना-क्रम में एक विलक्षण प्रवाह.
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    Rachna Tyagi
    22 सितम्बर 2017
    ज़ीरो माईल... अर्थात् मंज़िल बहुत नज़दीक़ है.. शीर्षक का मंतव्य सिद्ध करती हुई गीताश्री जी की कहानी एक साथ कई पहलुओं पर प्रकाश डालती है. बिहार की पृष्ठभूमि पर लिखी गई इस कहानी में वहाँ की बोली-बानी का भरपूर रस टपकता है. जहाँ एक ओर भोजपुरी लोकगीतों का सार्थक उपयोग कथानक की रोचकता को बढ़ाता है, वहीं बेरोज़गारी, नशाबंदी और स्त्री के एकांकीपन की व्यथा आदि पक्षों को भी मज़बूती से सामने रखा गया है.. कहानी में उन नव ब्याहताओं का दर्द साफ़ झलकता है, जिनका पति मेक इन इंडिया के बुलंद नारों और दस बाई बारह के होर्डिंग्स से चमकते स्वदेश में रोज़गार न होने के कारण कोसों दूर खाड़ी देशों में अमानवीय शर्तों पर नौकरी करने के लिये विवश है. ऐसे में एक नववधु के अरमान कितनी ख़ामोशी से चकनाचूर होते हैं, कैसे उसकी प्रतीक्षा अन्तहीन हो जाती है, उसके मायके और ससुरालवाले किस तरह से उसका दोहन करते हैं ...इन सब परिस्थितियों को मार्मिकता से उकेरा गया है. लेकिन परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने की बजाय नायिका जिस जिजीविषा से एक उद्देश्यहीन और पल-पल छीजते जीवन की परत को चीरकर एक सार्थक व उद्देश्यपूर्ण भविष्य को चुनती है, वह साहसिक निर्णय उसके जीवन को कृष्ण पक्ष से शुक्ल पक्ष की ओर ले जाता है. इसके अलावा एक और महत्वपूर्ण निर्णय वह लेती है -- जीवनसाथी शब्द के बंधन से मुक्त होकर एक नि:स्वार्थ और विश्वसनीय संबंध की चाहत का, जिसे मैत्री या महज़ साथ का नाम दिया जा सके..या यूँ कहें, कि जीवनसाथी शब्द सरीखे भ्रमजाल से निकल जाने का, अपनी ज़िंदग़ी अपने तरीक़े से जीने का... क्योंकि अब वह अपनी डोर किसी और के हाथ में न देकर अपने ही हाथ में रखना चाहती है. इसमें उसे किसी प्रकार की कोई दुविधा नहीं, न ही उसके पास इस संबंध में पुरुष की सहमति/असहमति के उत्तर की प्रतीक्षा का समय.....! स्त्री-विमर्श का बेहतरीन उदाहरण..! शराब जैसी बुराई के बन्द होने के पीछे महिलाओं का हाथ मानते हुए उनके प्रति पुन: दुर्व्यवहार के माध्यम से पुरुष मानसिकता की गिरावट का आभास भी कहानी में झलकता है. कम शब्दों में बँधे होकर भी पाठक को सामाजिक मुद्दों के व्यापक धरातल पर ला खड़ा करने वाली एक रोचक कहानी के लिये गीता जी को बधाई...
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    RN Tripathi
    23 सितम्बर 2017
    "जीरो माईल" एक अद्भुत कथा है । जिसने गाँव देखा है सरसो के खेत देखें हैं, खेतों में रखवाली के लिए बने मचान देखे है, धूल उड़ाती पगडंडिया देखी हैं --- वे सब खो जाएंगे , इस कहानी में ।गांव में बिताए पल जीवंत करती यह कहानी । भोजपुरी के उन शब्दों का प्रयोग जो कि निम्न टपके में आम है पूरी ईमानदारी के साथ लेखिका ने किया है। मैं तो सिवान रहा हूँ जीरादेई स्टेशन से भी परिचित हूँ , और गाँव कि पृष्ठ भूमि के कारण गाँव के उस वातावरण से भी परिचित हूँ जिसे लेखिका ने अपनी कथा में जीवंत कर दिया है। स्त्री कहीं कि भी हो उसकी एक ही समस्या है , नायिका के मायके कि गरीबी उसे बेटी से ज्यादा गृहणी बना देती है, फिर जवान होते शरीर की भूख ककड़ी के खेत मे सरका देती है , मार पीट .. किसी तरह माँ को मना सुनहले सपने सजा शादी करने में सफल हो ससुराल आ जाती है । लेकिन यहां भी पति पैसों के लिए मेहंदी छूटने से पहले ही बिदेश चला जाता है । घर मे तड़पती नायिका ..एक मजदूरनी की तरह घर के काम निपटाती रहती है। टेंपो से पर्चे बांटने वाले से कुछ उम्मीद जगती है तो वह भी केवल मोबाइल तो गिफ्ट दे जाता है , लेकिन ..... पति विदेश फंस चुके था देश मे कुछ नही था । बस अंधेरा .. लेकिन गीता जी की नायिका अंधेरे को चीर "बदलाव" की ओर तेजी से बढ़ती है --- उसे सास स्वसुर या प्रेमी कोई नही रोक पता , उसका आत्मविश्वास सबको किंकर्तव्य विमूढ़ बना जाता है।। एक सफल विजेता कहानी । गाँव की सौंधी मिट्टी की खुशबू से तर । गीताश्री जी ने फिर एक बार कमाल कर दिया है ।।।
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    Prabhat Milind
    28 अक्टूबर 2017
    अद्भुत कहानी. गांव की नारी जब अपने अधिकारों के प्रति सचेत हो जाए तो माना जा सकता है कि उनके सशक्त होने की राह में बुनियाद की पहली ईट रखी जा चुकी है. भाषा बेलाग है, कथानक मज़बूत और कसा हुआ. गीता श्री कहानी शुरु करने से पहले उसका आखिरी वाक्य लिख चुकी होती हैं. उनकी लेखकीय वैचारिकी भी भटकाव-रहित है. वह आज स्त्री-अधिकारों की एक ज़रुरी और मुखर आवाज़ हैं. किरदार के संवाद लक्ष्य के मुताबिक हैं और घटना-क्रम में एक विलक्षण प्रवाह.