वो औरत रोज़ अपने आप पर यूँ जुल्म ढाती है स्वयं भूखी रहे पर रोटियाँ घर को खिलाती है नशे में धुत्त अपने आदमी से मार खाकर भी बहुत जिन्दादिली से दर्द को वो भूल जाती है वो बहती इक नदी है तुम उसे पोखर समझना मत है इतना वेग उसमे राह का पत्थर हटाती है समुन्दर दे नहीं सकता किसी को बूँदभर पानी वो मीठी-सी नदी फिर भी समुन्दर में समाती है उठाकर रेत-मिट्टी की तगारी साधती है लय पसीने में नहाकर जिंदगी को गुनगुनाती है जिसे दुनिया में आने से ही पहले मार देते तुम गलाकर जिस्म अपना वो तुम्हे दुनिया मे लाती है ...
रिपोर्ट की समस्या
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