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वो औरत रोज़

4.4
1886

वो औरत रोज़ अपने आप पर यूँ जुल्म ढाती है स्वयं भूखी रहे पर रोटियाँ घर को खिलाती है नशे में धुत्त अपने आदमी से मार खाकर भी बहुत जिन्दादिली से दर्द को वो भूल जाती है वो बहती इक नदी है तुम उसे पोखर समझना मत है इतना वेग उसमे राह का पत्थर हटाती है समुन्दर दे नहीं सकता किसी को बूँदभर पानी वो मीठी-सी नदी फिर भी समुन्दर में समाती है उठाकर रेत-मिट्टी की तगारी साधती है लय पसीने में नहाकर जिंदगी को गुनगुनाती है जिसे दुनिया में आने से ही पहले मार देते तुम गलाकर जिस्म अपना वो तुम्हे दुनिया मे लाती है ...

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लेखक के बारे में
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मालिनी गौतम
समीक्षा
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  • author
    Vaibhav Teddy
    14 अक्टूबर 2017
    last two lines are fantastic.... loved it... and this is fact
  • author
    Pooja Pahuja
    22 सितम्बर 2017
    Shandar musalsal gajal....Jisake sare ashaar aurat ko samarpit hain .
  • author
    Pooja Kesharwani
    15 अक्टूबर 2017
    behad khubshurat rachna .......
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    Vaibhav Teddy
    14 अक्टूबर 2017
    last two lines are fantastic.... loved it... and this is fact
  • author
    Pooja Pahuja
    22 सितम्बर 2017
    Shandar musalsal gajal....Jisake sare ashaar aurat ko samarpit hain .
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    Pooja Kesharwani
    15 अक्टूबर 2017
    behad khubshurat rachna .......