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तक़सीम

4.8
8846

ये शहर भी अजीब हैं न अनोखे? लाख गाली दे दिया करें रोज मैं और तू इन्हें पर इनके बिना तेरे-मेरे जैसों का कोई गुजारा है बोल? कितने साल बीत गए हम दोनों को यहां आए। अब तो ये ही दूसरा घर बन गया है हमारा। ...

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लेखक के बारे में

शिक्षा-दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में पीएच.डी । जन्म-28 अप्रैल 1971   प्रकाशित किताबें    ‘नुक्कड़ नाटक: रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से प्रकाशित। वाणी प्रकाशन से  नुक्कड़ नाटक-संग्रह ‘जनता के बीच जनता की बात’ । एन.सी.ई.आर.टी. द्वारा ‘तारा की अलवर यात्रा’ । सामाजिक सरोकारों  को उजागर करती पुस्तक ‘आईने के सामने’ स्वराज प्रकाशन से प्रकाशित।   कहानी-लेखन   कथादेश, वागर्थ, परिकथा, पाखी, जनसत्ता,  वर्तमान साहित्य ,बनासजन, पक्षधर, जनसत्ता साहित्य वार्षिकी, सम्प्रेषण,हिंदी चेतना, अनुक्षण आदि पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित।    पुरस्कार - सूचना और प्रकाशन विभाग, भारत सरकार की ओर से पुस्तक ‘तारा की अलवर यात्रा ’ को वर्ष 2008 का भारतेंदु हरिशचंद्र पुरस्कार।   जनसंचार माध्यमों में भागीदारी जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, नयी दुनिया जैसे राष्ट्रीय दैनिक समाचार-पत्रों और विभिन्न पत्रिकाओं में नियमित लेखन। संचार माध्यमों से बरसों पुराने जुड़ाव के तहत आकाशवाणी और दूरदर्शन के अनेक कार्यक्रमों  के लिए लेखन और भागीदारी।   सम्प्रति: दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज के हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में  कार्यरत।

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    01 सितम्बर 2015
    हम साम्प्रदायिकता पर लिखित कोई रचना पढ़ते हैं तो प्रतीत होता है कि समाज का तमाम बहुसंख्यक तबका इसके लिए दोषी है। मगर, 'तकसीम' साम्प्रदायिकता के पीछे छिपे राजनैतिक चेहरे को उजागर करती है। साथ ही उजागर करती है - धर्मान्धता की आड़ में होने वाले स्वार्थपूर्ण कृत्यों को। धर्म के नाम पर सेंकी जाने वाली राजनैतिक रोटियों की और इशारा करती है - तकसीम। 'तकसीम' साफ साफ ये जाहिर करती है कि साम्प्रदायिकता के लिए समस्त बहुसंख्यक तबका दोषी नहीं है वरन् कुछ स्वार्थी तंतु हैं- जो 'दिवार' के इस तरफ भी है और उस तरफ भी। और ये दिवार भी उनकी बनाई हुई है। परन्तु , 'तकसीम' जैसी रचनाएँ इन दीवारों को तोड़ने में कारगर सिद्ध होगी - ऐसा पूर्ण विश्वास है। ऐसी उत्कृष्ट रचना के लिए आपको बहुत बधाई।  
  • author
    reetika tomar
    03 सितम्बर 2015
    sbse phle mam aapko is shandaar rachana ke liye badhai aapki ye kahani pathkon ke samaksh sampradayikata ko samjhne ka aadhar tay karti hai. kahani ki antim teenon panktiyan mujhe kahani ki jaan lgti hai. kbhi na bdlne wala avaiya, sampradayikata kibali chadhe jameel aur anokhe, aur gau grass ki gadi ka ek br phir se chitran sb kuch bayan kr de rha h. behtrin rchna jo pathak kosochne pr mjbur krti h ki bdlav jruri h vrna jameel aur anokhe ki jagah hm bhi ho skte h
  • author
    r kumar
    18 अगस्त 2015
    Very touching and contemporary story
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    01 सितम्बर 2015
    हम साम्प्रदायिकता पर लिखित कोई रचना पढ़ते हैं तो प्रतीत होता है कि समाज का तमाम बहुसंख्यक तबका इसके लिए दोषी है। मगर, 'तकसीम' साम्प्रदायिकता के पीछे छिपे राजनैतिक चेहरे को उजागर करती है। साथ ही उजागर करती है - धर्मान्धता की आड़ में होने वाले स्वार्थपूर्ण कृत्यों को। धर्म के नाम पर सेंकी जाने वाली राजनैतिक रोटियों की और इशारा करती है - तकसीम। 'तकसीम' साफ साफ ये जाहिर करती है कि साम्प्रदायिकता के लिए समस्त बहुसंख्यक तबका दोषी नहीं है वरन् कुछ स्वार्थी तंतु हैं- जो 'दिवार' के इस तरफ भी है और उस तरफ भी। और ये दिवार भी उनकी बनाई हुई है। परन्तु , 'तकसीम' जैसी रचनाएँ इन दीवारों को तोड़ने में कारगर सिद्ध होगी - ऐसा पूर्ण विश्वास है। ऐसी उत्कृष्ट रचना के लिए आपको बहुत बधाई।  
  • author
    reetika tomar
    03 सितम्बर 2015
    sbse phle mam aapko is shandaar rachana ke liye badhai aapki ye kahani pathkon ke samaksh sampradayikata ko samjhne ka aadhar tay karti hai. kahani ki antim teenon panktiyan mujhe kahani ki jaan lgti hai. kbhi na bdlne wala avaiya, sampradayikata kibali chadhe jameel aur anokhe, aur gau grass ki gadi ka ek br phir se chitran sb kuch bayan kr de rha h. behtrin rchna jo pathak kosochne pr mjbur krti h ki bdlav jruri h vrna jameel aur anokhe ki jagah hm bhi ho skte h
  • author
    r kumar
    18 अगस्त 2015
    Very touching and contemporary story