15 अगस्त 1975 में आई,, शोले,,एक भव्य फ़िल्म थी! जिसके निर्देशक रमेश सिप्पी थे! जिसकी कहानी सलीम -जावेद की जोड़ी ने लिखी और पटकथा भी उन्हीं ने लिखी!! इस फिल्म को अपने संगीत से सजाया था राहुल देव ...
"जल बिच मीन पियासी" अब पुस्तक के रूप में amezon पर उपलब्ध।
💐चाहें हम रहें न रहें,ये भाव हमारे रह जाएँगे।
जब-जब पढ़ेंगे लोग हमें,हम याद उन्हें आ जाएँगे।💐
https://youtu.be/7Io3xh-AHBA
youtube पर मेरी कविताएँ और कहानियाँ सुने मेरी आवाज में ।
सारांश
"जल बिच मीन पियासी" अब पुस्तक के रूप में amezon पर उपलब्ध।
💐चाहें हम रहें न रहें,ये भाव हमारे रह जाएँगे।
जब-जब पढ़ेंगे लोग हमें,हम याद उन्हें आ जाएँगे।💐
https://youtu.be/7Io3xh-AHBA
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मैम आपने बेहतरीन फिल्म चुनी समीक्षा के लिये,लेकिन समीक्षा मे मुझे कुछ चूक लगी,आप इस शानदार मूवी के साथ अन्याय कर गई,माफ कीजियेगा,पर आपने बेसिक ही बताया जो सब को पता है,रमेश सिप्पी की शोले असल मे एक अन्ग्रेजी फिल्म " the magnificent seven" की कॉपी है जो की जापानी फिल्म "seven samurai " से प्रेरित थी, फिल्म की शुरुआत बड़ी जानदार है,जिसमे संजीव कुमार अपनी कहानी बतातें है,फिल्म एक से बढकर एक रोचक किस्सों का पिटारा है,जहां एक तरफ जय और वीरु का याराना है,वहीं बसंती और वीरु का रोमांस,सबसे मार्मिक और मूवी का प्रबल भाव पक्ष है विधवा जया और अमिताभ की अनबोली मोहब्बत का तराना जिसे जया के ससुर द्वारा समझ कर अंत मे जब जय मर जाता है तब अपनी बहू को सहारा देना, लाजवाब सीन बना गया,पूरी फिल्म की यू एस पी थी जय का सिक्का उछाल कर हेड टेल्स decide करना और अंत में उसिसे अपनी मौत का सीन तैय्यार करना,बातें तो और हैं,जो आप लिख सखती थी,पर आपने नही लिखा मैम,शानदार कॉमेडी दृश्य में मौसी और जय की बातचीत भी लाजवाब थी।।
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ये मेरी पहली समीक्षा है। आपने जब पानी टंकी की बात की तो फिर याद आया कि मैं भी कुछ समीक्षा जरूर लिखू आपके इस लेख पे। आपने जया भादुड़ी का चित्रण नहीं किया ये तो पूरी तरह से बेइंसाफी हुई ना। जिस गाँव मे लाइट नहीं वहाँ जया भादुड़ी पुरे फ़िल्म में न जाने कितने बार उनका लालटेन जलाना सचमुच में मुझे वो दृश्य बहुत ही अच्छी लगी। एक विधवा औरत सफेद साड़ी में बखूबी तरीके से निभाया रोल सही मायने में मुझे बहुत ही अच्छा लगा।
उनका लालटेन जलाना और उनकी लौ कम करना बहुत ही अच्छा लगता था। इससे ये पता तो चल ही रह था कि उस गाँव मे लाइट नहीं थी। तो फिर उतना बड़ा पानी टंकी जिनपे धर्मेंद्र को चढ़ाया गया था लोग पानी उसमे कैसे भरते थे। सवाल तो लाज़मी है।
ये छोटी सी समीक्षा मेरे तरफ से। आपको जया भादुड़ी जी का भी चित्रण जरूर करना चाहिए था।
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मैम आपने बेहतरीन फिल्म चुनी समीक्षा के लिये,लेकिन समीक्षा मे मुझे कुछ चूक लगी,आप इस शानदार मूवी के साथ अन्याय कर गई,माफ कीजियेगा,पर आपने बेसिक ही बताया जो सब को पता है,रमेश सिप्पी की शोले असल मे एक अन्ग्रेजी फिल्म " the magnificent seven" की कॉपी है जो की जापानी फिल्म "seven samurai " से प्रेरित थी, फिल्म की शुरुआत बड़ी जानदार है,जिसमे संजीव कुमार अपनी कहानी बतातें है,फिल्म एक से बढकर एक रोचक किस्सों का पिटारा है,जहां एक तरफ जय और वीरु का याराना है,वहीं बसंती और वीरु का रोमांस,सबसे मार्मिक और मूवी का प्रबल भाव पक्ष है विधवा जया और अमिताभ की अनबोली मोहब्बत का तराना जिसे जया के ससुर द्वारा समझ कर अंत मे जब जय मर जाता है तब अपनी बहू को सहारा देना, लाजवाब सीन बना गया,पूरी फिल्म की यू एस पी थी जय का सिक्का उछाल कर हेड टेल्स decide करना और अंत में उसिसे अपनी मौत का सीन तैय्यार करना,बातें तो और हैं,जो आप लिख सखती थी,पर आपने नही लिखा मैम,शानदार कॉमेडी दृश्य में मौसी और जय की बातचीत भी लाजवाब थी।।
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ये मेरी पहली समीक्षा है। आपने जब पानी टंकी की बात की तो फिर याद आया कि मैं भी कुछ समीक्षा जरूर लिखू आपके इस लेख पे। आपने जया भादुड़ी का चित्रण नहीं किया ये तो पूरी तरह से बेइंसाफी हुई ना। जिस गाँव मे लाइट नहीं वहाँ जया भादुड़ी पुरे फ़िल्म में न जाने कितने बार उनका लालटेन जलाना सचमुच में मुझे वो दृश्य बहुत ही अच्छी लगी। एक विधवा औरत सफेद साड़ी में बखूबी तरीके से निभाया रोल सही मायने में मुझे बहुत ही अच्छा लगा।
उनका लालटेन जलाना और उनकी लौ कम करना बहुत ही अच्छा लगता था। इससे ये पता तो चल ही रह था कि उस गाँव मे लाइट नहीं थी। तो फिर उतना बड़ा पानी टंकी जिनपे धर्मेंद्र को चढ़ाया गया था लोग पानी उसमे कैसे भरते थे। सवाल तो लाज़मी है।
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