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रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो

3.7
2095

रोने की हर बात पे कहकहा लगाते हो जख्मो पर जलता ,क्यूँ फाहा लगाते हो गिर न जाए आकाश, से लौट के पत्थर अपने मकसद का , निशाना लगाते हो हाथो हाथ बेचा करो ,ईमान- धरम तुम सड़को पे नुमाइश ,तमाशा लगाते हो फूलो से रंज तुम्हे ,खुशबू से परहेज बोलो किन यादों फिर ,बगीचा लगाते हो छन के आती रौशनी ,बस उन झरोखों से संयम सुशील मन ,से शीशा लगाते हो ...

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लेखक के बारे में
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सुशील यादव

जन्म 30 जून 1952 दुर्ग छत्तीसगढ़ रिटायर्ड डिप्टी कमीश्नर , कस्टम्स,सेन्ट्रल एक्साइज एवं सर्विस टेक्स व्यंग ,कविता,कहानी का स्वतंत्र लेखन |रचनाएँ स्तरीय मासिक पत्रिकाओं यथा कादंबिनी ,सरिता ,मुक्ता तथा समाचार पत्रं के साहित्य संस्करणों में प्रकाशित |अधिकतर रचनाएँ gadayakosh.org ,रचनाकार.org ,अभिव्यक्ति ,उदंती ,साहित्य शिल्पी ,एव. साहित्य कुञ्ज में नियमित रूप से प्रकाशित |

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    19 ജൂലൈ 2020
    मन के विरोधाभास मैं स्वीकृति संजोकर अच्छी कविता लिखी है।👌👍🙂
  • author
    11 ജൂലൈ 2019
    सर। इसे पूरा कीजिये। हमें लगा। कुछ और होता तो बेहतर होता
  • author
    11 ജനുവരി 2025
    वह भाई बहुतखूब
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    19 ജൂലൈ 2020
    मन के विरोधाभास मैं स्वीकृति संजोकर अच्छी कविता लिखी है।👌👍🙂
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    11 ജൂലൈ 2019
    सर। इसे पूरा कीजिये। हमें लगा। कुछ और होता तो बेहतर होता
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    11 ജനുവരി 2025
    वह भाई बहुतखूब