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"रेत की मछली" पुस्तक की एक समीक्षा

4.1
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पुस्तक का नाम: रेत की मछली लेखिका           : कांता भारती प्रकाशक           : लोकभारती प्रथम संस्करण: 2008  /2009 मूल्य              : 120/_ इस पुस्तक की आलोचना करने से पूर्व कतिपय शब्द इसके ...

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लेखक के बारे में
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मौमिता बागची

पिछले चार वर्ष से लेखन के क्षेत्र में सक्रिय। अपने शुरुआती दिनों से ही प्रतिलिपि के साथ जुड़ी हुई हूँ, पहले एक पाठिका के रूप में और अब एक लेखिका के रूप में भी। इसी प्रतिलिपि के मंच पर बहुत सारे प्रोत्साहक पाठक एवं उत्तम मार्गदर्शक लेखक मिले हैं; जिनके साथ एक मैत्रिपूर्ण संबंध जुड़ गया है। और अब गाहे बेगाहे हम लोग एक दूसरे की रचनाओं को पढ़ते भी हैं एवं एक-दूजे की आलोचना करके रचनाओं को तराशते भी हैं। मेरी अब तक लिखी हुई लगभग सभी कहानियाँ ( पुस्तकों की छोड़कर) एवं लेख आपको प्रतिलिपि पर उपलब्ध हो जाएँगे। यदि मुझे और पढ़ने की इच्छा रखते हैं तो मेरी इन प्रकाशित पुस्तकों पर भी एक नज़र मार सकते हैं:-- 1) कुछ अनकहे अल्फाज़ कुछ अधूरे ख्वाब ( कहानी संग्रह) 2) माँ की डायरी ( लघु उपन्यास) 3) संसुमिता ( साझा संकलन) 4) चतुष्कोण ( कहानी संग्रह) आपकी प्रतिक्रियाएँ मेरे लेखन को सुधारता है इसलिए उनका मुझे सदैव इंतज़ार रहेगा।

समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    इंदु कपूर
    22 मई 2021
    बहुत जानकारी मिली और विख्यात लेखक के जीवन का एक ये पहलू भी जानने को मिला । मैं भी धर्मवीर भारती जी की प्रशंसक रही हूं और रहूंगी क्योंकि पति पत्नी के संबंधों के आधार पर अपनी राय बनाना सही नहीं लगता । हर रिश्ते की सत्यता उसे भोगने वाले को पता होती है । वैसे मैं आप से असहमत नहीं हूं लेकिन कांता जी की अपने संबंधों को ले कर चुप्पी नई बात कहाँ है । हमारे समाज की हर दूसरी औरत यही तो करती है क्योंकि वैवाहिक संबंधों के खोखलेपन को उजागर करने पर भी कीचड़ उसी पर आता है ,ये एक कटु सच्चाई है । वैसे आपके विचार पढ़ कर बहुत देर बाद 'रेल की मछली ' पढ़ने की जिग्यासा जगी है .
  • author
    12 अगस्त 2021
    आपकी समीक्षा पढ़कर सच में रेत की मछली पढ़ने का मन हो गया गुनाहों के देवता मेरी सबसे पसंदीदा किताब है ,मैंने फेसबुक पर भी दो-तीन जगह पड़ा की रेत की मछली के बिना गुनाहों का देवता अधूरी है ,इसे आज आर्डर करके मंगा कर पढ़ती हूँ, और मैं भी इसकी समीक्षा लिखूंगी
  • author
    Harsh chikara
    09 जनवरी 2025
    गुनाहों का देवता १९९२ में मात्र १७ वर्ष की आयु में पढ़ी थी ।शुरुआत करने पर नीरस सी लगी सो उठा कर रख दी । फिर गर्मियों की छुट्टी में निपट निठल्ले पन में किताब उठायी तो खो के रह गया और रात के तीन बजे तक पूरी पढ़ डाली । पढ़ते पढ़ते कई बार रोया भी । खासकर सुधा के मौन प्रेम उसकी तपस्या और उसके समर्पण के लिये । फिर २००९ में प्रयागराज में बुक स्टाल पर दिखी तो इलाहाबाद के वर्णन को जीने के लिये पुनः: पढ़ी । वहीं भाव फिर जागे । पर अभी दो दिन पहले सामने आयी तो फिर पढ़ी यह जानने को कि मैं आखिर पहले पढ़कर क्यों रोया था । पर इस बार उम्र और जिंदगी के तजुर्बे से पढ़ी तो अलग अनुभूति आयी कि कुछ चीजें जिन्हें हम लड़कपन या युवावस्था में फंतासी के रूप में रोमांटिक मान लेते हैं वे अनुभव के साथ बदल जाती है पर फिर भी मैं कहूंगा कि सुधा चाहे कांता जी रही हो या कोई और पर लेखक उससे मानसिक और आत्मिक रूप से हृदय की कोरों से प्रेम करता था तभी वह इतना सुंदर इतना आकर्षक और प्यारा पात्र रच पाया । चलिये अब आपकी समीक्षा के आधार पत्र रेत की मछली भी पढ़ते हैं।
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    इंदु कपूर
    22 मई 2021
    बहुत जानकारी मिली और विख्यात लेखक के जीवन का एक ये पहलू भी जानने को मिला । मैं भी धर्मवीर भारती जी की प्रशंसक रही हूं और रहूंगी क्योंकि पति पत्नी के संबंधों के आधार पर अपनी राय बनाना सही नहीं लगता । हर रिश्ते की सत्यता उसे भोगने वाले को पता होती है । वैसे मैं आप से असहमत नहीं हूं लेकिन कांता जी की अपने संबंधों को ले कर चुप्पी नई बात कहाँ है । हमारे समाज की हर दूसरी औरत यही तो करती है क्योंकि वैवाहिक संबंधों के खोखलेपन को उजागर करने पर भी कीचड़ उसी पर आता है ,ये एक कटु सच्चाई है । वैसे आपके विचार पढ़ कर बहुत देर बाद 'रेल की मछली ' पढ़ने की जिग्यासा जगी है .
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    12 अगस्त 2021
    आपकी समीक्षा पढ़कर सच में रेत की मछली पढ़ने का मन हो गया गुनाहों के देवता मेरी सबसे पसंदीदा किताब है ,मैंने फेसबुक पर भी दो-तीन जगह पड़ा की रेत की मछली के बिना गुनाहों का देवता अधूरी है ,इसे आज आर्डर करके मंगा कर पढ़ती हूँ, और मैं भी इसकी समीक्षा लिखूंगी
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    Harsh chikara
    09 जनवरी 2025
    गुनाहों का देवता १९९२ में मात्र १७ वर्ष की आयु में पढ़ी थी ।शुरुआत करने पर नीरस सी लगी सो उठा कर रख दी । फिर गर्मियों की छुट्टी में निपट निठल्ले पन में किताब उठायी तो खो के रह गया और रात के तीन बजे तक पूरी पढ़ डाली । पढ़ते पढ़ते कई बार रोया भी । खासकर सुधा के मौन प्रेम उसकी तपस्या और उसके समर्पण के लिये । फिर २००९ में प्रयागराज में बुक स्टाल पर दिखी तो इलाहाबाद के वर्णन को जीने के लिये पुनः: पढ़ी । वहीं भाव फिर जागे । पर अभी दो दिन पहले सामने आयी तो फिर पढ़ी यह जानने को कि मैं आखिर पहले पढ़कर क्यों रोया था । पर इस बार उम्र और जिंदगी के तजुर्बे से पढ़ी तो अलग अनुभूति आयी कि कुछ चीजें जिन्हें हम लड़कपन या युवावस्था में फंतासी के रूप में रोमांटिक मान लेते हैं वे अनुभव के साथ बदल जाती है पर फिर भी मैं कहूंगा कि सुधा चाहे कांता जी रही हो या कोई और पर लेखक उससे मानसिक और आत्मिक रूप से हृदय की कोरों से प्रेम करता था तभी वह इतना सुंदर इतना आकर्षक और प्यारा पात्र रच पाया । चलिये अब आपकी समीक्षा के आधार पत्र रेत की मछली भी पढ़ते हैं।