"अभाव में जीता बालमन न खेल खिलौने न ही कोई उपहार चाहिए इन्हें तो बस कागज की कश्ती और तनिक बरखा की एक फुहार चाहिए......." सावन का महीना, बड़े - बड़े पहाड़ जैसे नीम पेड़ की बलिष्ठ डालें खुद की ...
बेहद मार्मिक कहानी,, पढ़ते पढ़ते में भावुक हो गयी अंकिता जी,, अगर इस कहानी को कोई पुरस्कार नही मिला तो शायद प्रतिलिपि पर जजमेन्ट टीम सही से काम नही करेगी लगता है 👍👍
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सुपरफैन
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आपने इस कथानक के द्वारा जीवन के उन प्रश्नों को उकेरा है अंकिता जी, जिनके ज़बाब प्रकृति या ईश्वर दें तो ही संभव है, कन्या के लिए इतने बन्धन, इतने नियम, इतनी रस्में, इतने रिवाज, और इन सबसे हजार गुणा ज्यादा ढकोसले, चार लोग क्या कहेंगे? समाज में कैसे मुंह दिखाएंगे? लड़की है ऐसे कैसे चलेगा? कम से कम हमने आज तक इन सवालों का औचित्य, और तथाकथित समाज के चार लोग तब नहीं देखे जब वास्तव में जरूरत हो।
कथानक ने जितना द्रवित किया है उससे कहीं अधिक आपकी वैचारिक प्रतिबद्धता से पुनः प्रभावित हूं।
बहुत बहुत बधाई 🙏🌹🙏,
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सुपरफैन
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kahani ke ant Mai समाप्त 🙏 जो लिखा है वहां से तो इसकी शुरुवात है अंकिता!
इसको पढ़ने के बाद सीख लेनी होगी कि कागज की नाव समय के थपेड़ों को सहन नहीं कर सकती!
आज शायद मैंने आपको पहली बार पढ़ा है, बहुत उम्दा सोच है आपकी🙏🙏🙏
शानदार सृजन👍
पुनिया के घर वाले जैसे लोग आज भी पढ़ने लिखने में अक्षम हैं , सोच वहीं की वहीं है , कौन समझा सकता है??????
कानून बनने के बाद भी ऐसा होता है दुर्भाग्य है पुनिया जैसी बच्चियों का😒
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