प्रेम का जो बीज तुमने ..... अबूझ ही बो दिया था वो कब प्रस्फुटित हो अंकुरित हो गया... पता ही न चला तेरे विरह के ताप से खिल गया.... अपने अश्कों से सींचन किया है इसका अब वो पौधा व्रक्श बन ...
loved it..."जब कवि का उर बिंध जाता है किसी अज्ञात वेदना की शर से,
तब झर-झर कविता बहती है, निर्झर बन कवि के अंतस् से।"
मैम, मुझे आप जैसा लिखना तो नहीं आता, बस कोशिश भर कर सकती हूः। अगर वक्त मिले तो जरा मेरी रचनाओं को भी पढ़िएगा। आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा।
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