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प्रेम---

3.7
668

पुरापाषाण काल में जब इंसान हो रहे थे परिचित पत्थरों से कब होने लगा ईश्क पता ही न चला पत्थरों को रगड़ कर जब उन्होंने किया होगा आविष्कार आग का कुछ तो जला होगा उनके भीतर भी--- देह को ढंकने की कवायद शुरू ...

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लेखक के बारे में
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सीमा संगसार
समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Naveen Pawar
    22 जनवरी 2022
    आदरणीया महोदया जी आपकी कवितावली बहुत खुबसुरत होती है उपयुक्तता लफ्ज दिल की गहराई मे अमिट छाप छोड जाते है
  • author
    अरविन्द सिन्हा
    29 अगस्त 2022
    प्रेम ईश्वरीय वरदान है सत्य यही है , यह अलौकिक है , बुद्धि से भी परे है । सुन्दर रचना । साधुवाद
  • author
    Satyendra Kumar Upadhyay
    20 अक्टूबर 2015
    ईश्क जैसे शब्द राष्ट्र भाषा की धज्जियाॅ उड़ा रहे हैं।अअत्यंत सारहीन व अप्रासांगिक कविता ।
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    Naveen Pawar
    22 जनवरी 2022
    आदरणीया महोदया जी आपकी कवितावली बहुत खुबसुरत होती है उपयुक्तता लफ्ज दिल की गहराई मे अमिट छाप छोड जाते है
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    अरविन्द सिन्हा
    29 अगस्त 2022
    प्रेम ईश्वरीय वरदान है सत्य यही है , यह अलौकिक है , बुद्धि से भी परे है । सुन्दर रचना । साधुवाद
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    Satyendra Kumar Upadhyay
    20 अक्टूबर 2015
    ईश्क जैसे शब्द राष्ट्र भाषा की धज्जियाॅ उड़ा रहे हैं।अअत्यंत सारहीन व अप्रासांगिक कविता ।