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पता ही न चला

4.5
487

गहरे नीले रंग की कमीज-टोपी और सफ़ेद रंग की धोती । यही तो पहनावा था हमारे गाँव के सफाई कामदार अंबालाल का ! बड़ी ईमानदारी से अपना फर्ज़ निभाता । जात-पाँत का भेद तो था गाँव में पर इन्सानियत ज़िंदा थी । ...

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लेखक के बारे में

संक्षिप्त परिचय नाम : मल्लिका मुखर्जी जन्मस्थान : चंदननगर (पश्चिम बंगाल) जन्मतिथि : 23 अक्टूबर, 1956 माता : रेखा भौमिक पिता : क्षितीशचंद्र भौमिक शिक्षा : एम. ए. (अर्थशास्त्र) भाषा ज्ञान : हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती, बांग्ला संप्रति : वरिष्ठ लेखा परीक्षा अधिकारी, कार्यालय प्रधान निदेशक लेखापरीक्षा (केन्द्रीय), गुजरात, ऑडिट भवन, नवरंगपुरा, अहमदाबाद-380009. लेखन विधाएँ : कविता, गीत, कहानी, ग़ज़ल, निबन्ध, लेख साहित्यिक उपलब्धियाँ : प्रकाशित हिन्दी काव्य-संग्रह- ‘मौन मिलन के छन्द’ (2010), ‘एक बार फिर’ (2015) अनुवाद कार्य - वर्ष 2016 में प्रकाशित, माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के गुजराती काव्य-संग्रह ‘आँख आ धन्य छे’ का बांग्ला काव्यानुवाद ‘नयन जे धन्य’ डॉ. अंजना संधीर के परिचयात्मक हिन्दी काव्य-संकलन ‘स्वर्ण आभा गुजरात’ में, गुजरात में बसी एक सौ कवयित्रियों में स्थान प्राप्त

समीक्षा
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  • author
    Surendra Verma
    15 अक्टूबर 2015
    कवित्री की यह रचना संछिप्त लेकिन सुंदर शब्दों में हमारी जीवन शैली जो तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है का एक सफाई कामदार का उदाहरण देते हुए इस बदलाव का बेबाक वर्णन है। कविता के जरिये इस प्रकार के सामाजिक बदलाव का वर्णन सराहनीय प्रयास है। खूबसूरत रचना के लिए लिए लेखिका को बधाई।
  • author
    मंजू महिमा
    15 अक्टूबर 2015
    मर्म को छूती ...बदलती हुई परिस्थितियों में इंसानी ज़ज्बातों में आई शुष्कता का वर्णन मल्लिका जी , आपने बडे ही तुलनात्मक तरीके से दिया है..बधाई...एवं  शुभकामनाएँ...आपकी कलाम अनवरत  चलती रहे...  
  • author
    Satyendra Kumar Upadhyay
    18 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का कोई अनुपालन नहीं करती एक  नितांत सारहीन व अप्रासांगिक कविता ।
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    Surendra Verma
    15 अक्टूबर 2015
    कवित्री की यह रचना संछिप्त लेकिन सुंदर शब्दों में हमारी जीवन शैली जो तेजी से शहरीकरण की ओर बढ़ रही है का एक सफाई कामदार का उदाहरण देते हुए इस बदलाव का बेबाक वर्णन है। कविता के जरिये इस प्रकार के सामाजिक बदलाव का वर्णन सराहनीय प्रयास है। खूबसूरत रचना के लिए लिए लेखिका को बधाई।
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    मंजू महिमा
    15 अक्टूबर 2015
    मर्म को छूती ...बदलती हुई परिस्थितियों में इंसानी ज़ज्बातों में आई शुष्कता का वर्णन मल्लिका जी , आपने बडे ही तुलनात्मक तरीके से दिया है..बधाई...एवं  शुभकामनाएँ...आपकी कलाम अनवरत  चलती रहे...  
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    Satyendra Kumar Upadhyay
    18 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का कोई अनुपालन नहीं करती एक  नितांत सारहीन व अप्रासांगिक कविता ।