किसी भी भाव अब ईमान के ज़ेवर नहीं बिकते, अगर ऐसे न होते हम हमारे घर नहीं बिकते. हामारे सोच में ही खोट है शायद कहीं कोई, खुले बाज़ार में वरना कभी ख़ंजर नहीं बिकते. परिंदे मार कर खा जाए कोई ये तो मुमकिन है, परिदों के किसी क़ीमत पे लेकिन पर नहीं बिकते. सुबह से शाम तक बाज़ार में बैठे रहे हम भी, किसी फुटपाथ पर ये क़ीमती अक्षर नहीं बिकते. चले जाओ वहीं वापस जहाँ से आए हो चाचा, शहर की सरहदों में फूँस के छप्पर नहीं बिकते. नई तहज़ीब के ये चटपटे मंज़र तो बिकते हैं, मगर इंसानियत और त्याग के मंज़र नहीं बिकते. ...

