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मृग - तृष्णा

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चंचल मन की विक्रति या है फिर मानस की प्रकृति, ढूँढता हूँ ... न कभी हुई है तृप्त , न शायद कभी होगी पूरी ..मेरी "मृग-तृष्णा" ... मेरी अभिव्यक्ति मे छिपी हो तुम , मेरे अंतरमन में बस गयी हो, हो तुम ज़हर ...