मैंने, ढूंढा उसे भरे बाजारों में सजावटी उपहारो में कई कई दुकानों में और महकते पकवानों में कपड़ों और गहनों में पर वह ओझल थी ओझल ही रही नैनों में खुशी ,........ खुशी कब कहां बिकती है ढूंढने ...
मैं जो हूँ वो किसी का अधूरा छूटा हुआ ख़्वाब हूँ,
जिसे मुकम्मल होना अभी बाकी है...
मैं राही हूँ उस रास्ते का ,जिसकी मंजिल पीछे छूट गयी,
लेकिन सफर अभी भी जारी है....
सारांश
मैं जो हूँ वो किसी का अधूरा छूटा हुआ ख़्वाब हूँ,
जिसे मुकम्मल होना अभी बाकी है...
मैं राही हूँ उस रास्ते का ,जिसकी मंजिल पीछे छूट गयी,
लेकिन सफर अभी भी जारी है....
कुछ अनुभूतियाँ जीवन की आपा धापी में अछूती रह जाती है । वे समझ तो आती है पर परिभाषित नहीं हो पाती ।हालांकि इनके आकर्षण की कमी तो बेहद सालती है । खुशियाँ .. कहाँ किसे के हिस्से टिक पाती है ... !!
बहुत अनुभूतिपूर्वक लिखा है आपने श्रीमति जितेंद्र जी ।
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कुछ अनुभूतियाँ जीवन की आपा धापी में अछूती रह जाती है । वे समझ तो आती है पर परिभाषित नहीं हो पाती ।हालांकि इनके आकर्षण की कमी तो बेहद सालती है । खुशियाँ .. कहाँ किसे के हिस्से टिक पाती है ... !!
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