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क्या दिल्ली क्या लाहौर : लकीरें हैं तो रहने दो...

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कुछ घावों के निशान जाहिर तौर पर बेशक खत्म हो जाएं लेकिन अंदर ही अंदर रिसते रहते हैं, सड़ते रहते हैं। ...और उस जख्म के इतिहास को जब भी कुरेदा जाता है तो उसकी सड़ांध से वो डर, दर्द और टीस फिर से ...

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लेखक के बारे में
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मनोज ठाकुर

हिमाचल के सोलन जिले के छोटे से गांव जगतपुर में जन्म। प्रारम्भिक शिक्षा गांव के सरकारी स्कूल में। हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन। माखन लाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवम् जनसंचार विश्वविद्यालय से जर्नलिज्म में स्नातकोत्तर। अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा से ग्राम विकास में स्नातकोत्तर। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक से जर्नलिज्म एंड मास कम्युनिकेशन (पॉलिटिकल सिनेमा इन इंडिया)में एमफिल। 15 वर्ष का प्रिंट जर्नलिज्म का अनुभव। अजीत समाचार, दैनिक भास्कर, अमर उजाला के बाद दैनिकभास्कर डिजिटल में पत्रकारिता। एक वर्ष तक राजस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका "जीने का अंदाज" के लिए व्यंग्य कॉलम। लघुकथा, कहानी, नाटक और व्यंग्य विधा में छोटे-छोटे प्रयास...

समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Rahul Siwach
    12 अगस्त 2019
    सर, बहुत ही सारगर्भित, मन खुश हो गया इसे पढ़ कर, आगे भी ऐसे लेख पढ़ने का इंतेजार रहेगा।
  • author
    Sudhir Raghav
    13 अगस्त 2019
    एक विचारोत्तेजक लेख। सभी को पढ़ना चाहिए।
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  • author
    Rahul Siwach
    12 अगस्त 2019
    सर, बहुत ही सारगर्भित, मन खुश हो गया इसे पढ़ कर, आगे भी ऐसे लेख पढ़ने का इंतेजार रहेगा।
  • author
    Sudhir Raghav
    13 अगस्त 2019
    एक विचारोत्तेजक लेख। सभी को पढ़ना चाहिए।