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कुछ अनकही...

4.6
306

तुम चाहते तो हम एक हो भी सकते थे.... न होते बर्बाद इस कदर हम लग कर गले तुम्हारे रो भी सकते थे.... जाने कोनसी थी वो गली जो मेरे घर से तेरे घर तक जाती थी... तुम चाहते तो एक आशियाना हम अपना बना भी ...

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लेखक के बारे में

हाँ काफ़िर हूँ मैं... पर गौर फरमा... काबिल हूँ मैं

समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    31 जुलै 2018
    बहुत बहुत बहुत उम्दा , शानदार रचनाकर्म 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
  • author
    Ashish Singh Blr
    02 ऑगस्ट 2018
    Kya baat hsi
  • author
    संजय रोंघे "Sanjay R."
    01 ऑगस्ट 2018
    waha kya bat hai
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    31 जुलै 2018
    बहुत बहुत बहुत उम्दा , शानदार रचनाकर्म 🙏🙏🙏🙏🙏🙏
  • author
    Ashish Singh Blr
    02 ऑगस्ट 2018
    Kya baat hsi
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    संजय रोंघे "Sanjay R."
    01 ऑगस्ट 2018
    waha kya bat hai