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ख़्वाब

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मैंने अब ख़्वाब देखना छोड़ दिया है  ... क्यूं देखूँ ऐसे ख़्वाब जिसे पूरा न कर सकूँ जिसे साथ न जी सकूँ ना जिसमें मर सकूँ ख़्वाब बाज़ार में खुले आम बिकने लगे हैं लोग मनचाहे पैसे देकर उन्हें ...

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लेखक के बारे में
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Ashok Mukherjee

लोग क्या सोचेंगे सोचकर अगर कलम उठाएंगे ... ज़िंदगी भर हम कभी भी सच नहीं लिख पाएंगे ... अशोक "अजनबी" सभी मित्रों व पाठकों का आभार जिन्होंने मेरी रचनाऐं पढ़ी व समीक्षा की 🙏🙏🙏

समीक्षा
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  • author
    Punit Barai "सूरज"
    13 जून 2020
    सुन्दर रचना 👌👌
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    Punit Barai "सूरज"
    13 जून 2020
    सुन्दर रचना 👌👌