मैंने अब ख़्वाब देखना छोड़ दिया है ... क्यूं देखूँ ऐसे ख़्वाब जिसे पूरा न कर सकूँ जिसे साथ न जी सकूँ ना जिसमें मर सकूँ ख़्वाब बाज़ार में खुले आम बिकने लगे हैं लोग मनचाहे पैसे देकर उन्हें ...
लोग क्या सोचेंगे सोचकर अगर कलम उठाएंगे ...
ज़िंदगी भर हम कभी भी सच नहीं लिख पाएंगे ...
अशोक "अजनबी"
सभी मित्रों व पाठकों का आभार जिन्होंने मेरी रचनाऐं पढ़ी व समीक्षा की 🙏🙏🙏
सारांश
लोग क्या सोचेंगे सोचकर अगर कलम उठाएंगे ...
ज़िंदगी भर हम कभी भी सच नहीं लिख पाएंगे ...
अशोक "अजनबी"
सभी मित्रों व पाठकों का आभार जिन्होंने मेरी रचनाऐं पढ़ी व समीक्षा की 🙏🙏🙏
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