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खिड़की

4.5
5773

ज़िन्दगी , तुम एसी (AC) वाले घरों की खिड़कियों सी , खुली बाहें पसारे अब सिर्फ़ त्योहारों पर ही दिखती हो... जाने क्यों सिमट गई हो भीतर की ओर , धूल जम गई है तुमपर परदे में मुँह ढके ढके और वो गर्मजोशी भी ...

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लेखक के बारे में
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सेमंत हरीश

पूर्व अधिकारी भारतीय सशस्त्र सेना एक यायावर फकीर / अनगढ़ शब्द चितेरा / गाता हूँ लिखता हूँ सात काव्य संग्रह प्रकाशित पाँच हिन्दी व दो अँग्रेजी में एक समंदर मीठा सा यहीं कहीं रेत में कुछ अनछुई ज़िंदगी बस यूँ ही कुछ अनदेखी ज़िंदगी  The Dancers My Lonesome Tours विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर रचनायें प्रकाशित सम्प्रति : जीवन दर्शन मार्गदर्शक (Counsellor/ Mentor) Project Management Specialist / ISO 27001-2005 Certified Lead Auditor (IT Processes)  सुरक्षा एवं कॉर्पोरेट सामाजिक प्रतिबद्धता दायित्व सलाहकार रूचि : साहित्य, संगीत, मानवशास्त्र, मनोविज्ञान, दर्शन, फोटोग्राफी  

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    Akanksha Rastogi
    12 अक्टूबर 2015
    यूँ लगा मानो मैं अपने बचपन के गाँव पहुँच गयी। वो खिड़की जो दूसरी मंज़िल से मुझे गाँव से सारे छोटे छोटे घर दिखाती थी, वो खिड़की जिसपर मैं सारा दिन झूलती थी आज मेरे बच्चों की किस्मत में नहीं है क्यों की यहाँ शहर की खिड़की बच्चों का नही ऐरकंडिशनेर का बोझ उठाती है।  क्यों लिखते हैं सीमान्त सर आप ऐसी कवितायेँ जो फिर से मुझे ये याद दिलाती हैं की मैं बस जिन्दा हूँ जी नहीं रही हूँ। आभार आपका। मेरी शुभकामनाएं भी।
  • author
    Chulbul Gee
    13 अक्टूबर 2015
    Another ironical yet thoughtful depiction of the fast changing urban landscape in India ,where people seem to have lost touch with each other. The verse flows well and the reader enjoys, 'the view from the window' which takes him on a trip down memory's lane. Overall , a commendable and thought provoking piece.  My best wishes to the poet for all his future endeavours !
  • author
    अंजलि अग्रवाल
    12 अक्टूबर 2015
    बहुत ही उम्दा रचना. मुझे मेरे बचपन की ओर खींच कर ले गई. जब हम खिड़की खोल कर ठंडी हवा महसूस करते थे और बाहर बारिश मे भीगने से माँ के मना करने पर खिड़की से हाथ व मुंह बाहर निकाल कर भीगने का मजा लेते थे. देव जी को बधाई..
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    Akanksha Rastogi
    12 अक्टूबर 2015
    यूँ लगा मानो मैं अपने बचपन के गाँव पहुँच गयी। वो खिड़की जो दूसरी मंज़िल से मुझे गाँव से सारे छोटे छोटे घर दिखाती थी, वो खिड़की जिसपर मैं सारा दिन झूलती थी आज मेरे बच्चों की किस्मत में नहीं है क्यों की यहाँ शहर की खिड़की बच्चों का नही ऐरकंडिशनेर का बोझ उठाती है।  क्यों लिखते हैं सीमान्त सर आप ऐसी कवितायेँ जो फिर से मुझे ये याद दिलाती हैं की मैं बस जिन्दा हूँ जी नहीं रही हूँ। आभार आपका। मेरी शुभकामनाएं भी।
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    Chulbul Gee
    13 अक्टूबर 2015
    Another ironical yet thoughtful depiction of the fast changing urban landscape in India ,where people seem to have lost touch with each other. The verse flows well and the reader enjoys, 'the view from the window' which takes him on a trip down memory's lane. Overall , a commendable and thought provoking piece.  My best wishes to the poet for all his future endeavours !
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    अंजलि अग्रवाल
    12 अक्टूबर 2015
    बहुत ही उम्दा रचना. मुझे मेरे बचपन की ओर खींच कर ले गई. जब हम खिड़की खोल कर ठंडी हवा महसूस करते थे और बाहर बारिश मे भीगने से माँ के मना करने पर खिड़की से हाथ व मुंह बाहर निकाल कर भीगने का मजा लेते थे. देव जी को बधाई..