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कंकड़-पत्थर

4.3
527

मैं पथ का कंकड़-पत्थर हूँ, जाने किस शिल्पी की टाँकी से, टकराकर में चूर हुआ! अपने विशाल गिरी गृह कुटुंब से, छिन्न-भिन्न हो दूर हुआ! आ पहुँचा मानव बस्ती में, चिर-परिचयहीन प्रवासी हूँ! मैं पथ का ...

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लेखक के बारे में
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पूनम कक्कड़
समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Nawal Prinja
    31 मई 2020
    प्रवासी भारतीय जो अपने मुल्क से अलग हो कहीं दूर रह रहें हैं उनके मर्म को यह पंक्तियाँ बखूबी दर्शाती हैं।
  • author
    Satyendra Kumar Upadhyay
    16 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का पूर्ण ध्यान रखती , सारयुक व प्रासंगिक तथा बहुत सुन्दर कविता ।
  • author
    Vijender Satwal . Radhey,
    12 मार्च 2020
    bahot Sunder
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  • author
    Nawal Prinja
    31 मई 2020
    प्रवासी भारतीय जो अपने मुल्क से अलग हो कहीं दूर रह रहें हैं उनके मर्म को यह पंक्तियाँ बखूबी दर्शाती हैं।
  • author
    Satyendra Kumar Upadhyay
    16 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का पूर्ण ध्यान रखती , सारयुक व प्रासंगिक तथा बहुत सुन्दर कविता ।
  • author
    Vijender Satwal . Radhey,
    12 मार्च 2020
    bahot Sunder