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कल्पना के दोहे

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चला पथिक पथ मोड़कर,नज़रों के उस पार कर्म  गवाही दे  रहे, था  जीवन  त्योहार ।। कविता बेबस गाय-सी ,हाँकें फिरते  लोग। मर्म न जाने काव्य का, ले  बैठे  हैं रोग ।। गांधी के सिद्धांत को,वानर रहे सँवार। ...

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लेखक के बारे में

मेरी माँ के द्वारा संवेदनात्मक तन्तुओं से बुनी कल्पना की चादर लपेटकर चलने वाली मैं,जीवन के कच्चे पथ की भावुक पथिक हूँ। जिसका जीवन- लक्ष्य उत्साह की उँगली थामकर मनोरमता से दिग्दर्शन करते हुए निरन्तर आगे की ओर बढ़ते जाना है ।आपके पास जब कभी समय हो तब आइयेगा मेरे शब्दगाह में,ज़्यादातर मैं वहीं रहती हूँ । संसार जब-जब मुझे गुमराह कर उबाने लगता है तब-तब स्वयं से छिपकर चुपचाप चली आती हूँ , अपनी शब्दगाह में सुस्ताने। शब्द की छाँव भर देती है मन के पोर-पोर में नई ऊर्जा.

समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Sushma Tomer
    22 मई 2020
    बहुत सुंदर पंक्तियां लिखी हैं आपने।
  • author
    मनोज कुमार
    22 मई 2020
    बहुत ही अच्छी रचना👌👌👌 👍💐
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    Sushma Tomer
    22 मई 2020
    बहुत सुंदर पंक्तियां लिखी हैं आपने।
  • author
    मनोज कुमार
    22 मई 2020
    बहुत ही अच्छी रचना👌👌👌 👍💐