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kadwahaat

4.5
5416

अब रोज़ सुबह उठने का कोई कारण समझ नहीं आता..जब तक नौकरी थी कुछ समय बीत जाता था बच्चों की मुस्कान देख के पर अब पूरा दिन... किस तरीके से समय व्यतीत करूँ कुछ समझ नहीं आता.. हालांकि बच्चों ने अपनी ...

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Suhaas Mani

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समीक्षा
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  • author
    Dhiraj Chauhan
    14 मार्च 2020
    इसे लम्हों की गुस्ताखी कहें या फिर ज़माने की जिद्द कुछ ख़ाब अधूरे रह जाते हैं कुछ बातें होठों में दबी राज़ कहीं वक़्त शिकायतें छोड़ जाता है तो कहीं शिकायतों में वक़्त सिमट कर ख़त्म हो जाता है है यह भावनाओ की ब्यस्तता या फिर यही है जीने के सलीक़े कोई रोता है अपनों के लिए किसी को अपनों से उब्ब है कोई रिश्तों में बंधना घुट्टन समझता है तो कहीं रिश्ते दम तोड़ रहे हैं किसी के इंतज़ार में बोझल हुए जाते हैं आँखे या फिर उम्र की सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते पलके भी बूढी हो गयी हैं फिर भी दूर कहीं सन्नाटे में उम्मीदें गुनगुना रही हैं लड़खड़ाते जुबां इन मांसल दीवारों से बाहर निकलने को बेताब हो रही हैं हमसे ये कहने को क्यों इच्छाएं बूढी नहीं होती।। -धीरज चौहान
  • author
    Shikha Srivastava
    11 मई 2020
    जीवन की पूँजी की कड़वाहट भारी वास्तविकता को बखूबी दर्शाया है आपने
  • author
    Shekhar Malik
    20 फ़रवरी 2017
    बहुत अच्छा वक्खयान
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    Dhiraj Chauhan
    14 मार्च 2020
    इसे लम्हों की गुस्ताखी कहें या फिर ज़माने की जिद्द कुछ ख़ाब अधूरे रह जाते हैं कुछ बातें होठों में दबी राज़ कहीं वक़्त शिकायतें छोड़ जाता है तो कहीं शिकायतों में वक़्त सिमट कर ख़त्म हो जाता है है यह भावनाओ की ब्यस्तता या फिर यही है जीने के सलीक़े कोई रोता है अपनों के लिए किसी को अपनों से उब्ब है कोई रिश्तों में बंधना घुट्टन समझता है तो कहीं रिश्ते दम तोड़ रहे हैं किसी के इंतज़ार में बोझल हुए जाते हैं आँखे या फिर उम्र की सीढियाँ चढ़ते-चढ़ते पलके भी बूढी हो गयी हैं फिर भी दूर कहीं सन्नाटे में उम्मीदें गुनगुना रही हैं लड़खड़ाते जुबां इन मांसल दीवारों से बाहर निकलने को बेताब हो रही हैं हमसे ये कहने को क्यों इच्छाएं बूढी नहीं होती।। -धीरज चौहान
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    Shikha Srivastava
    11 मई 2020
    जीवन की पूँजी की कड़वाहट भारी वास्तविकता को बखूबी दर्शाया है आपने
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    Shekhar Malik
    20 फ़रवरी 2017
    बहुत अच्छा वक्खयान