सुमी करवट बदलते-से समय में वह एक उनींदी-सी शाम थी । एक मरते हुए दिन की उदास , सर्द शाम । काजल के धब्बे-सी फैलती हुई । छूट गई धड़कन-सी अनाम । ऐसा क्या था उस शाम में ? धीरे-धीरे सरकती हुई एक निस्तेज शाम थी वह जिसे बाक़ी शामों के बासी फूलों के साथ समय की नदी में प्रवाहित किया जा सकता था । उस शाम की चटाई को मोड़ कर मैंने रख दिया था एक किनारे । लेकिन ज़रूर कुछ अलग था उस शाम में । घुटने मोड़े वह शाम अपनी गोद में कोई ख़ास चीज़ समेटे थी । कौन जानता था तब कि उन यादों के रंग इतने चटखीले होंगे कि दस बरस ...
रिपोर्ट की समस्या
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