बाकी भाषाओं का तो वे जाने हिन्दी के लेखकों के साथ तो मुझे लगता है ऐसी स्थिति आ ही गई होगी जो मेरे साथ है। कहानियों की कोई कमी नहीं है। जल में तैरती ,भागती मछलियों की तरह। अनगिनत। ठीक वैसे जैसे जहां ...
आपने सच को बिलकुल खोलकर रख दिया है। हिन्दी की ऐसी दशा होने पर भी कुछ सिरफिरे लोग हिंदी में लिखने में मस्त हैं। चलिये उन्हीं में शामिल हो जाया जाय। कोई नहीं छापा, तो इन्टरनेट पर डाल देंगें अपने सपने को, जैसे कोई अनाथाश्रम में अपने बच्चे को छोड़ आता है।
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सुपरफैन
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बहुत ही सही कहा जी.... बहुत कचोटता भी है मन को.. पर इसका तो यही इलाज लगता है कि.. अब क्या किया जाए.. दूसरे को क्या दोष दिया जाये.. शुरुआत स्वयं से ही हो.. जितना ज्यादा हो सके पूरे स्वाभिमान से उसे बोला जाए और सराहा जाये.. और यदि अच्छा लिख सकते है तो लिखकर आगे बढ़ाया जाये... अपने ही आसपास उसके लिए माहौल बनाया जाये.... अच्छी रचना👏👏👌
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