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है निजाम तेरा,

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२२१२ २२१२ २२१२ १२१२ दरवेश के हर हुजरे से अब मेहमां हटाइए जो लाश ले चलती गरीबी,दरमियाँ हटाइए बार-ए-गिरेबा को कलफ न मिले जहाँ नसीब में तहजीब की अब उस कमीज से गिरेबां हटाइए ये है निजाम तेरा, सफीना सोच कर उतारना चलती हवा दरिया से बे-मकसद तुफां हटाइए उनको बिछा दो मखमली कालीन मगर साहेब उम्मीद की बुनियाद हों काटे, वहाँ हटाइए जाने कोई क्यों खटकता है आँख में दबा-दबा अब हो सके मायूस नजरें अँखियाँ हटाइए दरवेश =saint हुजरे=private chamber बार-ए-गिरेबाँ-weight of coller ऑफ़ शर्ट निजाम = व्यवस्था ,सफीना=नाव ...

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लेखक के बारे में
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सुशील यादव

जन्म 30 जून 1952 दुर्ग छत्तीसगढ़ रिटायर्ड डिप्टी कमीश्नर , कस्टम्स,सेन्ट्रल एक्साइज एवं सर्विस टेक्स व्यंग ,कविता,कहानी का स्वतंत्र लेखन |रचनाएँ स्तरीय मासिक पत्रिकाओं यथा कादंबिनी ,सरिता ,मुक्ता तथा समाचार पत्रं के साहित्य संस्करणों में प्रकाशित |अधिकतर रचनाएँ gadayakosh.org ,रचनाकार.org ,अभिव्यक्ति ,उदंती ,साहित्य शिल्पी ,एव. साहित्य कुञ्ज में नियमित रूप से प्रकाशित |

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    Arun Sharma
    09 जून 2019
    वाहहहह बहुत अच्छा लिखा है आपने
  • author
    Sikandar Vadia
    16 अक्टूबर 2018
    nice.
  • author
    Manjit Singh
    29 जून 2020
    darvesh ke kamre se log hatane ki baat pyari hai.darvesh ekaant pasand karte he
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    Arun Sharma
    09 जून 2019
    वाहहहह बहुत अच्छा लिखा है आपने
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    Sikandar Vadia
    16 अक्टूबर 2018
    nice.
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    Manjit Singh
    29 जून 2020
    darvesh ke kamre se log hatane ki baat pyari hai.darvesh ekaant pasand karte he