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चालीस साल की कुंवारी लड़की

4.2
16217

काश कि किसी अफसाने को शुरु करने से पहले उसके अंजाम का ठीक-ठीक पता होता! पता होता तो क्या लोकेश की, शुभा की जिंदगी आज कुछ और होती? या कि शुभा इस दुनिया में आई ही नहीं होती? पूजाघर से सामान ला-लाकर थाल ...

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लेखक के बारे में
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नीला प्रसाद
समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Vivek Padtani
    31 अगस्त 2018
    बेहतरीन , लिखा भी खूब है , दो धर्मों के बीच का द्वन्द , ये हकीकत है समाज की और उसका दोगलापन भी , एक तरफ सर्व धर्म समभाव की भावना और फिर कोई उसको हकीकत के धरातल पर मूर्त कर दे तो बच्चों के साथ परेशानी ही परेशानी , समाज का नजरिया आज भी दकियानूसी ही है बहुत कम हैं यहाँ लीक से हटकर चलने वाले , जो है वह भी कभी न कभी टूटते ही हैं और अपने आप को कहीं किसी मोड़ पर लाचार ही पाते हैं !☺️
  • author
    Praneeta Pareek
    15 फ़रवरी 2021
    कहानी का उद्देश्य ही हिन्दू धर्म का अपमान करना है। स्वीकार्य नहीं है।
  • author
    Renu Vijh
    21 मई 2019
    शायद एक निश्चित वय पार करने के बाद हर लड़की की सोच यही हो जाती है धर्म को इतर कर ।केवल शादी हो जाना समाज की नजरों में महत्वपूर्ण होता है और साथ ही परिवार को भी आदत हो जाती है ,बेटी के सहारे काम चलाने की भावपूर्ण उत्तम
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    Vivek Padtani
    31 अगस्त 2018
    बेहतरीन , लिखा भी खूब है , दो धर्मों के बीच का द्वन्द , ये हकीकत है समाज की और उसका दोगलापन भी , एक तरफ सर्व धर्म समभाव की भावना और फिर कोई उसको हकीकत के धरातल पर मूर्त कर दे तो बच्चों के साथ परेशानी ही परेशानी , समाज का नजरिया आज भी दकियानूसी ही है बहुत कम हैं यहाँ लीक से हटकर चलने वाले , जो है वह भी कभी न कभी टूटते ही हैं और अपने आप को कहीं किसी मोड़ पर लाचार ही पाते हैं !☺️
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    Praneeta Pareek
    15 फ़रवरी 2021
    कहानी का उद्देश्य ही हिन्दू धर्म का अपमान करना है। स्वीकार्य नहीं है।
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    Renu Vijh
    21 मई 2019
    शायद एक निश्चित वय पार करने के बाद हर लड़की की सोच यही हो जाती है धर्म को इतर कर ।केवल शादी हो जाना समाज की नजरों में महत्वपूर्ण होता है और साथ ही परिवार को भी आदत हो जाती है ,बेटी के सहारे काम चलाने की भावपूर्ण उत्तम