काश कि किसी अफसाने को शुरु करने से पहले उसके अंजाम का ठीक-ठीक पता होता! पता होता तो क्या लोकेश की, शुभा की जिंदगी आज कुछ और होती? या कि शुभा इस दुनिया में आई ही नहीं होती? पूजाघर से सामान ला-लाकर थाल ...
बेहतरीन , लिखा भी खूब है , दो धर्मों के बीच का द्वन्द , ये हकीकत है समाज की और उसका दोगलापन भी , एक तरफ सर्व धर्म समभाव की भावना और फिर कोई उसको हकीकत के धरातल पर मूर्त कर दे तो बच्चों के साथ परेशानी ही परेशानी , समाज का नजरिया आज भी दकियानूसी ही है बहुत कम हैं यहाँ लीक से हटकर चलने वाले , जो है वह भी कभी न कभी टूटते ही हैं और अपने आप को कहीं किसी मोड़ पर लाचार ही पाते हैं !☺️
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शायद एक निश्चित वय पार करने के बाद हर लड़की की सोच यही हो जाती है धर्म को इतर कर ।केवल शादी हो जाना समाज की नजरों में महत्वपूर्ण होता है और साथ ही परिवार को भी आदत हो जाती है ,बेटी के सहारे काम चलाने की भावपूर्ण उत्तम
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