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अंत का आभास……

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अश्रु बह कर कह गये अनसुने वो शब्द भी अंतर्निहित थी वेदना जिन मे युगों के मौन की स्पर्श का कंपन वही अतिरेक रंजित मन वही हे प्रिय मेरे ! अब तुम कहीं और मैं भी हूँ यूँ ही कहीं उस तरु की शाख पर पत्तों के ...

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लेखक के बारे में
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कवि प्रमोद
समीक्षा
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    आपकी रेटिंग

  • कुल टिप्पणी
  • author
    Satyendra Kumar Upadhyay
    15 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का सम्मान करती है। शुद्ध हिंदी में बहुत सुन्दर कविता है। मात्रा की भी कोई अशुद्धि नहीं है । बेहतरीन ।
  • author
    Manjit Singh
    26 जून 2020
    mout se Darna kya? mout to ek avsar he naya sharir naya lok paane ka
  • author
    शुभम पंथ
    26 मई 2017
    मन जितना जीना चाहे ,तन उतना ही मरता जाए इंसा की हिमाक़त देखो ,उम्मीद ही करता जाए
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    Satyendra Kumar Upadhyay
    15 अक्टूबर 2015
    राष्ट्र भाषा का सम्मान करती है। शुद्ध हिंदी में बहुत सुन्दर कविता है। मात्रा की भी कोई अशुद्धि नहीं है । बेहतरीन ।
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    Manjit Singh
    26 जून 2020
    mout se Darna kya? mout to ek avsar he naya sharir naya lok paane ka
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    शुभम पंथ
    26 मई 2017
    मन जितना जीना चाहे ,तन उतना ही मरता जाए इंसा की हिमाक़त देखो ,उम्मीद ही करता जाए