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आंसुओं के रिश्ते

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‘हमारे बीच अब कुछ भी नहीं रहा...।’ – सपाट चेहरे और चुराती नज़रों से उसने संयुक्ता से कहा। अवाक् और आहत संयुक्ता की आँखों में आँसू आए तो लेकिन फिर पता नहीं कहाँ चले गए...। उसने गहरी नज़र से उसे देखा, ...

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लेखक के बारे में
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डॉ .अमिता नीरव

शोधार्थी होना चाहिए था, कहानियों ने खींच लिया। इत्तफाक से कहानीकार हूँ, विचार हमेशा हावी रहते हैं, कहानी कह पाती हूँ, इस पर हमेशा संदेह रहता है। प्रतिक्रियाएं मिलती है तो विश्वास आता है।

समीक्षा
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    24 अगस्त 2015
    साथ चलने का फैसला हमारा था ,छोड़ने का फैसला अकेले ने कैसे ले लिया से प्रशन्न उभरता है की कैसे प्यार क्या स्लेट पर लिखा कोई शब्द है जिसे जब चाहा लिखा न चाहा मिटा दिया | अमूमन प्रेम सम्बन्धो में चौराहे पर जाकर एक असमंजसता आती है की ये जो अब तक प्रेम का ढोंग कर रहा था साथी सही मायनो में चौराहो से बड़ा इंस्पायर है | यहाँ उसे लिबर्टी है अन्य दिशाओ में जाने की अमूमन पुरुष का ये स्टांस है  | तब वो क्यों चले बंधे बंधाये एक रास्ते पर ज़िन्दगी के  अमिता ज़ी आंसुओ के रिश्तो के इस गहरे मर्म को आपने बड़ी गहराई से उकेरा है ,शायद इसलिए भी की आप एक स्त्री है ,एक माँ भी | जिसे इन आंसुओ के गहरे समुन्द्र से न जाने कितनी बार गुज़रना होता है ,डूब कर निकलना होता है | पुरुष होने के नाते महसूस होता है की ये पत्थर से कठोरता ,भ्रम ,दम्भ ,हासिल करने का ये सदियों का विरासतनामा शायद अब निर्वेद और उस कॉर्न वाले भैया से बस महरूम है . ये दोनों कुछ आशा बंधाते है की अब भी कुछ लोग है जिन्हे आंसुओ के रिश्ते की समझ  है ,भाव है | बस ये स्त्री इसलिए इतनी कम उमीदो में भी आश्वस्त है की कभी तो सब ठीक होगा | जो रिश्तो को आंसुओ के समुन्दर के रास्ते से मेहफ़ूज़ रखेगा | ढीली कर दी जाती है  एक दिन अनायास ही सम्पूर्ण ताकत से  बंद की गई मुट्ठी इसलिए नहीं कि चुक गई है शक्ति याकि क्षीण हो गई है शिराएँ बल्कि इसलिए कि एक दुर्निवार आतंरिक पुकार के आगे झुकना पड़ता है सभी को .......... हर बंद मुट्ठी  अंजुरी हो जाना चाहती है  एक दिन -राजेश नीरव  आपके इस गहरे लेखन से जुड़ती हुई सी मुझे राजेश जी की ये पंक्तिया मौज़ू लगी | बहुत अच्छा लिखा है आपने हमेशा की तरह | आप को पड़ कर प्रेरणा मिलती है गहरे कही | उम्दा लेख | -लक्ष्मण पार्वती पटेल   
  • author
    Rituraj Dhatravda
    22 अगस्त 2015
    शानदार रचना, क्या लिखती हैं आप वाह
  • author
    Jyoti Sah
    18 अक्टूबर 2017
    bade dino k baad kuchh pdkr aankhe hamari v nam hui. kuchh dard to sabke andar hote h. haan ye sach h aansuo K riste gahre hote h
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    24 अगस्त 2015
    साथ चलने का फैसला हमारा था ,छोड़ने का फैसला अकेले ने कैसे ले लिया से प्रशन्न उभरता है की कैसे प्यार क्या स्लेट पर लिखा कोई शब्द है जिसे जब चाहा लिखा न चाहा मिटा दिया | अमूमन प्रेम सम्बन्धो में चौराहे पर जाकर एक असमंजसता आती है की ये जो अब तक प्रेम का ढोंग कर रहा था साथी सही मायनो में चौराहो से बड़ा इंस्पायर है | यहाँ उसे लिबर्टी है अन्य दिशाओ में जाने की अमूमन पुरुष का ये स्टांस है  | तब वो क्यों चले बंधे बंधाये एक रास्ते पर ज़िन्दगी के  अमिता ज़ी आंसुओ के रिश्तो के इस गहरे मर्म को आपने बड़ी गहराई से उकेरा है ,शायद इसलिए भी की आप एक स्त्री है ,एक माँ भी | जिसे इन आंसुओ के गहरे समुन्द्र से न जाने कितनी बार गुज़रना होता है ,डूब कर निकलना होता है | पुरुष होने के नाते महसूस होता है की ये पत्थर से कठोरता ,भ्रम ,दम्भ ,हासिल करने का ये सदियों का विरासतनामा शायद अब निर्वेद और उस कॉर्न वाले भैया से बस महरूम है . ये दोनों कुछ आशा बंधाते है की अब भी कुछ लोग है जिन्हे आंसुओ के रिश्ते की समझ  है ,भाव है | बस ये स्त्री इसलिए इतनी कम उमीदो में भी आश्वस्त है की कभी तो सब ठीक होगा | जो रिश्तो को आंसुओ के समुन्दर के रास्ते से मेहफ़ूज़ रखेगा | ढीली कर दी जाती है  एक दिन अनायास ही सम्पूर्ण ताकत से  बंद की गई मुट्ठी इसलिए नहीं कि चुक गई है शक्ति याकि क्षीण हो गई है शिराएँ बल्कि इसलिए कि एक दुर्निवार आतंरिक पुकार के आगे झुकना पड़ता है सभी को .......... हर बंद मुट्ठी  अंजुरी हो जाना चाहती है  एक दिन -राजेश नीरव  आपके इस गहरे लेखन से जुड़ती हुई सी मुझे राजेश जी की ये पंक्तिया मौज़ू लगी | बहुत अच्छा लिखा है आपने हमेशा की तरह | आप को पड़ कर प्रेरणा मिलती है गहरे कही | उम्दा लेख | -लक्ष्मण पार्वती पटेल   
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    Rituraj Dhatravda
    22 अगस्त 2015
    शानदार रचना, क्या लिखती हैं आप वाह
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    Jyoti Sah
    18 अक्टूबर 2017
    bade dino k baad kuchh pdkr aankhe hamari v nam hui. kuchh dard to sabke andar hote h. haan ye sach h aansuo K riste gahre hote h