आदमी ही आदमी से दूर हो गया पाई जो दौलत मगरूर हो गया बोझ से गमों के ये चूर हो गया स्वार्थ से कितना भरपूर हो गया आदमी ही आदमी से दूर हो गया पैसा ही इसका दस्तूर हो गया जाने कैसा इसको फितूर हो गया खो ...
बधाई।क्या समानता है।मैंने भी एक कविता आदमी प्रकाशित की है।आपके और मेरे भाव भी समान है।कभी मौका मिलै तो मेरी अन्य. रचनाओं के साथ आदमी. भीपढने का कष्ट करें धन्यवाद।
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