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सुन्दरियों का ‘होमकमिंग’(व्यंग्य)

3.3
8100

सुन्दरियाँ, जो जीतने गयीं थी, जीतकर वापिस आ रहीं हैं। पुरूष पलके बिछाये बैठे हैं। स्त्रियाँ आँचल फैलाए बैठीं है। बेसब्री से प्रतीक्षा की जा रही है। सब्र का पैमाना छलका जा रहा है। कारण है, ...

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लेखक के बारे में

जहां से शुरू होता हूँ वहां ख़त्म नहीं होता। ख़त्म वहां पर होना चाहता हूँ जहां से शुरू होने की कोई गुंजायश न बचे।

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    Pawan Srivastava
    16 जून 2018
    शीला की जवानी की समझ रखने वाले पाठकों के लिए आपने यह क्या अनरगलर लिख दिया ,ऐसी poor rating तो मिलनी हीं थी।तो क्या जो बात मारक है और अंदाज़ भी अलहदा पर कूढ़ दिमाग पत्थर की तरह होते हैं जिन पर दानिश का कोई फूल नहीं खिलता।
  • author
    03 जून 2021
    सुंदर। बाजारवाद के युग में इन सौंदर्य आयोजनोंके बाद आने वाली विजेताओं को जिस तरह मीडिया और आधुनिक समाज द्वारा आसमान पर चढ़ाया जाता है, उस पर एक दिलचस्प और आकर्षक व्यंग्य रचा है आपने। बधाई।
  • author
    nidhi Bansal "Nidhi"
    26 जुलाई 2018
    सन्दर्भ समझ नहीं आया किन्तु व्यगांत्मक शैली असरदार है।
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    Pawan Srivastava
    16 जून 2018
    शीला की जवानी की समझ रखने वाले पाठकों के लिए आपने यह क्या अनरगलर लिख दिया ,ऐसी poor rating तो मिलनी हीं थी।तो क्या जो बात मारक है और अंदाज़ भी अलहदा पर कूढ़ दिमाग पत्थर की तरह होते हैं जिन पर दानिश का कोई फूल नहीं खिलता।
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    03 जून 2021
    सुंदर। बाजारवाद के युग में इन सौंदर्य आयोजनोंके बाद आने वाली विजेताओं को जिस तरह मीडिया और आधुनिक समाज द्वारा आसमान पर चढ़ाया जाता है, उस पर एक दिलचस्प और आकर्षक व्यंग्य रचा है आपने। बधाई।
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    nidhi Bansal "Nidhi"
    26 जुलाई 2018
    सन्दर्भ समझ नहीं आया किन्तु व्यगांत्मक शैली असरदार है।