सुन्दरियाँ, जो जीतने गयीं थी, जीतकर वापिस आ रहीं हैं। पुरूष पलके बिछाये बैठे हैं। स्त्रियाँ आँचल फैलाए बैठीं है। बेसब्री से प्रतीक्षा की जा रही है। सब्र का पैमाना छलका जा रहा है। कारण है, ...
शीला की जवानी की समझ रखने वाले पाठकों के लिए आपने यह क्या अनरगलर लिख दिया ,ऐसी poor rating तो मिलनी हीं थी।तो क्या जो बात मारक है और अंदाज़ भी अलहदा पर कूढ़ दिमाग पत्थर की तरह होते हैं जिन पर दानिश का कोई फूल नहीं खिलता।
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सुंदर। बाजारवाद के युग में इन सौंदर्य आयोजनोंके बाद आने वाली विजेताओं को जिस तरह मीडिया और आधुनिक समाज द्वारा आसमान पर चढ़ाया जाता है, उस पर एक दिलचस्प और आकर्षक व्यंग्य रचा है आपने। बधाई।
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