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शांति का रंग

4.6
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बाक़ी सारे रंग पर बहस की जा सकती है सिवाय शांति के रंग के वह हमेशा पत्तों, पौधों, पेड़ों का हरा रंग होगा घास का भी घास के सब प्रकारों का वह अपनी मुट्ठियों में थामे रहती है धरती की सारी त्वचा उसे घिसने ...

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लेखक के बारे में

जन्म--- ---18 जून 1975 शिक्षा ---एम ए, इतिहास, सनी बफैलो, 2008 पी जी डिप्लोमा, पत्रकारिता, S.I.J.C. पुणे, 1998 बी ए, हानर्स, इतिहास, इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1996 अध्यवसाय----BITV, और ‘The Pioneer’ में इंटर्नशिप, 1997-98 ---- FTII में समाचार वाचन की ट्रेनिंग, 1997-98 ----- राष्ट्रीय सहारा टीवी में पत्रकारिता, 1998—2000 प्रकाशन---------हंस, वागर्थ, पहल, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कथाक्रम, वसुधा, साक्षात्कार, बया, मंतव्य, आउटलुक, अकार, अभिव्यक्ति, जनज्वार, अक्षरौटी, युग ज़माना, बेला, समयमान, अनुनाद, सिताब दियारा, पहली बार, पुरवाई, लन्दन, पुरवाई भारत, लोकतंत्र दर्पण, सृजनगाथा, विचार मीमांसा, रविवार, सादर ब्लोगस्ते, हस्तक्षेप, दिव्य नर्मदा, शिक्षा व धरम संस्कृति, उत्तर केसरी, इनफार्मेशन2 मीडिया, रंगकृति, हमज़बान, अपनी माटी, लिखो यहाँ वहां, बाबूजी का भारत मित्र, जयकृष्णराय तुषार. ब्लागस्पाट. कॉम, चिंगारी ग्रामीण विकास केंद्र, हिंदी चेतना, नई इबारत, सारा सच, साहित्य रागिनी, साहित्य दर्पण, करुणावती

समीक्षा
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  • author
    02 मार्च 2019
    आपकी कविता में बहुत गहरे अर्थ है इनकी व्याख्या में जाना जैसे किसी ओस के जंगल से गुजरना है। जिसमे बहुत कुछ चमक रहा है
  • author
    Vishnu Bohra
    21 मई 2019
    बहुत ही सराहनीय कार्य है। इतने कम शब्दों में अच्छा प्रयास है।
  • author
    02 जून 2019
    शुरुआत में कविता बिंबो को लेकर चलती है लेकिन अंत में लड़खड़ा कर गिर जाती है जल्दबाजी में लिखी गई कविता
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    02 मार्च 2019
    आपकी कविता में बहुत गहरे अर्थ है इनकी व्याख्या में जाना जैसे किसी ओस के जंगल से गुजरना है। जिसमे बहुत कुछ चमक रहा है
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    Vishnu Bohra
    21 मई 2019
    बहुत ही सराहनीय कार्य है। इतने कम शब्दों में अच्छा प्रयास है।
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    02 जून 2019
    शुरुआत में कविता बिंबो को लेकर चलती है लेकिन अंत में लड़खड़ा कर गिर जाती है जल्दबाजी में लिखी गई कविता