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एक आशिक़ी

4.3
1752

है एक आशिक़ी ये संभलती नही जो है एक आरजू बस मचलती रही जो करूँ क्या बता मुझको दिलबर मेरे मेरी दोनो आँखें तरसती रही जो .... कि हर रोज़ यूँ ही है दिल मेरा तड़पे तुघे घूरता, तुमसे मिलने को तरसे तुम नही ...

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लेखक के बारे में

रणजीत प्रताप सिंह प्रतिलिपी के सह-संस्थापक हैं, उन्होने कमप्यूटर साइंस से इंजीनियरिंग एवम एम.बी.ए भी किया हुआ है। प्रतिलिपी से पहले वे सिटी बैंक(Citibank) एवम वोदाफोन(Vodafone) में काम कर चुके हैं। लेकिन इन सबसे अधिक वे अपने आप को एक पाठक के तौर पर पहचानते हैं, वे लेखक या रचनाकार बिल्कुल नहीं, लेकिन कभी कभी चंद पंक्तियां लिख देते हैं।

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    Ashish boghani
    20 जनवरी 2017
    Ishq ho ya ho Jung bharpur Hona chahiye,Phir Natija ho Kuch bhi Manjur Hona chahiye.
  • author
    meenakshi
    19 फ़रवरी 2017
    आशिकी दर्द देती है .....sir ji
  • author
    Shanker Kumar Rajak
    01 फ़रवरी 2017
    soulful poem..........very nice.......
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  • author
    Ashish boghani
    20 जनवरी 2017
    Ishq ho ya ho Jung bharpur Hona chahiye,Phir Natija ho Kuch bhi Manjur Hona chahiye.
  • author
    meenakshi
    19 फ़रवरी 2017
    आशिकी दर्द देती है .....sir ji
  • author
    Shanker Kumar Rajak
    01 फ़रवरी 2017
    soulful poem..........very nice.......