ऐसा कोई भी काइयाँपन वाला, उत्तेजक या गुस्से से भरा दृश्य, वाद-विवाद या संवाद नहीं है जिसे साहित्यिक भाषा की दहलीज लांघे बिना न दिखाया जा सकता हो। फिर भी आज जिस ओर दृष्टि जाती है हर कोई ही फेशन के रूप में यह फॉलो करने में लगा हुआ है। गाली-गलौच को तो जैसे एक किताब का अभिन्न अंग ही मान लिया गया है। लेखकों में यह आम धारणा हो गई है कि दो चार- गालियाँ लिख दो तो पाठक अपने आप ही किताब की ओर खिंचे चले आएंगे। आजकल की किताबों में गाली, अश्लीलता और नग्नता का प्रयोग कुत्ते को हड्डी के रूप में किया जा रहा है। अरे महोदय.. क्या यह लिखना पर्याप्त नहीं है कि संबंधित पात्र ने किसी को तैश में आकर अपशब्द कह डाले, ऐसा क्यों है कि उन घृणित शब्दों को मसाले के साथ परोसे बिना काम नहीं चलाया जा सकता..? साहित्य की इससे बड़ी क्षति हुई है, आज पाठकों का एक बड़ा समूह हिन्दी रचनाओं की तरफ से मोह भंग सा महसूस करने लगा है। हैरान हो जाता हूँ जब देखता हूँ कि ऐसी रचनाओं को बड़े-बड़े पुरस्कार कैसे मिल जाते हैं, जिन्हे कोई सभ्य परिवार निश्चिंत भाव से अपने ड्रॉइंग रूम की टेबल पर तक नहीं रख सकता। सामाजिक यथार्थ दिखाने जैसे दावों की आड़ में सामाजिक नैतिकता का सरेआम उल्लंघन होता है। आप ही बताइए साहित्य जगत में समाज के दृश्यों का हूबहू चित्र उतारने में प्रेमचंद से बड़ा कोई लेखक हुआ है क्या..? क्या उस समय के लोग गालियाँ नहीं बकते होंगे..?
बेहतर होगा यदि साहित्य को साहित्य ही रखा जाए, आजकल की हिन्दी फिल्मों की तरह सभ्यता के पतन का अड्डा न बनने दिया जाए। अगर आपकी भाषा, शैली और कथानक की रोचकता में दम है तो मुझे नहीं लगता अश्लीलता या इसी तरह की गंदगी न होने से पाठकों को कोई विशेष फर्क पड़ेगा। साहित्य सृजन के इसी उद्देश्य को लेकर यह नवोदित कहानीकार अपनी कलम कागजों पर घिसता है।
रिपोर्ट की समस्या