तन्हाईयों के ढेर में ख्वाहिश दबी रही, जैसे कि रेगिस्तान में बाकी नमी रही । मुझको बिठाके चल दिया ऑटो जबउसको छोड़, मैं देखता रहा,वो मुझे देखती रही । रोते रहे कुछ लोग और जलते रहे कुछ घर, पर निंदकों की बस्तियों में रौशनी रही। हल है ये लोकतंत्र सियासत के हाथ का, जनता ही इस जुए से मगर जूझती रही । सूखे के बावज़ूद भी उस दूब को देखो, जाने वो इस अकाल में कैसे बची रही । बचपन गया, माँ भी गई,कोल्हू - कुएं गए, अब तो न रहट और न वो ढेकुली रही । ...