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शिप्रा एक्सप्रेस

4.5
40460

रात के 11 बज रहे थे। लगा सड़क पर कोई तेजी से दौड़ रहा है। रात के सन्नाटे में आवाज़ भय पैदा कर रही थी। आवाज़ नजदीक आती गई। मेरा दरवाजा कोई ज़ोर ज़ोर से पीट रहा था। साथ में दबी घुटी सी आवाज़ आई - ”दी, दरवाजा ...

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लेखक के बारे में
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कलावंती

टी/32/बी , नॉर्थ रेलवे कॉलोनी , रांची , झारखंड -834001

समीक्षा
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  • कुल टिप्पणी
  • author
    11 सितम्बर 2018
    अफसोस होता है और पश्चाताप भी की हम ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ आज भी औरत के चरित्र को मिट्टी का मानते है, चाँहे वो अपनी इच्छा से किसी के साथ हो, चाहें कोई उसपर जबरदस्ती करे और चाहें खुद पुरूष उसकी मजबूरियों का फायदा उठा कर उसका इस्तेमाल कर रहा हो, प्रत्येक स्थिति में लड़की का चरित्र निशाने पर रहता है। समझ नहूं आता की सभी मर्यादाएँ स्त्री के ही लिए क्यों, पुरुष के लिए मर्यादाएँ क्यों नहीं है। मैं पुरुष होने पर शर्मिन्दा हूँ।😣😣
  • author
    कबीर
    08 अक्टूबर 2017
    लेखनी से ऐसे जुड़ा, मानो शिप्रा अपने पड़ोस की ही कोई लड़की हो... पर सच यही है, कि हमारे चारों ओर कई शिप्रा हर दिन घुट रहीं हैं, और हम हमेशा की तरह, निर्विकार भाव से उनकी ज़िंदगी पढ़ते/देखते/ और सुन कर भूलते रहते हैं।
  • author
    Vandana M
    01 अप्रैल 2020
    बिल्कुल व्यावहारिक कहानी. आज के समय में पूर्णतः प्रासंगिक. पहले महिलाये आर्थिक रूप से पुरुषो पर आश्रित थी तो समस्या थी, आज जब वो अपने पैरों पर खड़ी हैं, स्वावलम्बी हो रहीं हैं तो अलग प्रताड़ित हो रही हैं. क्या निदान है ? लेखिका सचमुच बधाई की पात्र हैं.
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    11 सितम्बर 2018
    अफसोस होता है और पश्चाताप भी की हम ऐसे समाज में रह रहे हैं, जहाँ आज भी औरत के चरित्र को मिट्टी का मानते है, चाँहे वो अपनी इच्छा से किसी के साथ हो, चाहें कोई उसपर जबरदस्ती करे और चाहें खुद पुरूष उसकी मजबूरियों का फायदा उठा कर उसका इस्तेमाल कर रहा हो, प्रत्येक स्थिति में लड़की का चरित्र निशाने पर रहता है। समझ नहूं आता की सभी मर्यादाएँ स्त्री के ही लिए क्यों, पुरुष के लिए मर्यादाएँ क्यों नहीं है। मैं पुरुष होने पर शर्मिन्दा हूँ।😣😣
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    कबीर
    08 अक्टूबर 2017
    लेखनी से ऐसे जुड़ा, मानो शिप्रा अपने पड़ोस की ही कोई लड़की हो... पर सच यही है, कि हमारे चारों ओर कई शिप्रा हर दिन घुट रहीं हैं, और हम हमेशा की तरह, निर्विकार भाव से उनकी ज़िंदगी पढ़ते/देखते/ और सुन कर भूलते रहते हैं।
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    Vandana M
    01 अप्रैल 2020
    बिल्कुल व्यावहारिक कहानी. आज के समय में पूर्णतः प्रासंगिक. पहले महिलाये आर्थिक रूप से पुरुषो पर आश्रित थी तो समस्या थी, आज जब वो अपने पैरों पर खड़ी हैं, स्वावलम्बी हो रहीं हैं तो अलग प्रताड़ित हो रही हैं. क्या निदान है ? लेखिका सचमुच बधाई की पात्र हैं.