होली का दिन है। लड्डू के भक्त और रसगुल्ले के प्रेमी पंडित मोटेराम शास्त्री अपने आँगन में एक टूटी खाट पर सिर झुकाये, चिंता और शोक की मूर्ति बने बैठे हैं। उनकी सहधर्मिणी उनके निकट बैठी हुई उनकी ओर सच्ची सहवेदना की दृष्टि से ताक रही है और अपनी मृदुवाणी से पति की चिंताग्नि को शांत करने की चेष्टाकर रही है। पंडितजी बहुत देर तक चिंता में डूबे रहने के पश्चात् उदासीन भाव से बोले- नसीबा ससुरा ना जाने कहाँ जाकर सो गया। होली के दिन भी न जागा ! पंडिताइन- दिन ही बुरे आ गये हैं। इहाँ तो जौन ते तुम्हारा हुकुम ...
रिपोर्ट की समस्या
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