''मुझे क्या अधिकार है कि मैं विज्ञान के अध्ययन से प्राप्त इस अमूल्य सुख को भोगूँ? मेरे इतने रूसी भाई जब तक जार द्वार पद दलित होते रहेंगे तब तक मैं अपनी ज्ञान-वासना को तृप्त कर, अपने जीवन की उत्कट इच्छा को कैसे शांत कर सकता हूँ! इसलिए, हे मेरे जीवन के आवश्यक अंग मेरे ज्ञानार्जन! तुम्हें अंतिम प्रणाम! तद्जनित अकथनीय सुख और शांति तुम्हें भी अंतिम प्रणाम!'' हमने महात्मा गांधी प्रिंस क्रोपटकिन के इस आशय के वाक्य उनकी स्वरचित जीवनी में पढ़े थे। जिस समय हमने इस महात्मा के उद्गार पढ़े, ...