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कंचन देवी

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4.2

तपती दुपहरी। पत्ता भी नहीं हिल रहा था। सूरज की किरणें शरीर की त्वचा को भेद रहीं थी। गला सूख रहा था।आसपास कोई पेड़ या कोई छाया नजर नहीं आ रही थी। डांभर पिघल रहा था। उसमें जूता धंसा-जा रहा था। ऐड़ी ...