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हम कैसे विश्वगुरू?

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वास्तविक को अवास्तविक बताकर, प्रकृति को मारकर, संस्कारों को दफनाकर हम तरक्की नहीं कर सकतें। हम अपनी मौत को निमन्त्रण ही दे रहे हैं।