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छप्पय छंद

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4.7

1.> हर-हर करती नित्य, जटाओं में माँ गंगे शीतल करती भाल, चन्द्र की रष्मि तरंगें। कण्ठाभूषण बने, भुजंग सुषाोभित ऐसे हों आलिंगनबद्ध, लताएं तरु से जैसे। ‘राजन’ षिव के हृदय में, जगदम्बे का वास है परमपिता ...