नाम : विजयलक्ष्मी विभा
जन्मदिवस : २५ अगस्त , १९४६
मूलस्थान : टीकमगढ़, मध्य प्रदेश
शैक्षिक उपाधि : एम.ए ( अंग्रेजी ), एम.ए ( हिन्दी ) ,एम.ए ( पुरातत्व ) , बी.ऐड
1. साहित्य प्रेरणा :
साहित्य मुझे विरासत में मिला है। पिता श्री स्व. अम्बिका प्रसाद दिव्य ६० ग्रंथो के लेखक एवं महान चित्रकार थे। उन्हों ने घर में जो माहोल और संस्कार दिए वे पूर्ण तथा साहित्यिक थे। हमारी दिनचर्या ही साहित्यिक थी। हमारा मनोरंजन भी साहित्यिक होता था। माँ श्रीमती कमला दिव्य से संगीत की प्रेरणा मिलती थी। घर का वातावरण संगीतमय रहता था। मेरे भाई जगदीश किंजल्क और में बचपन से ही साहित्य सृजन को अपना पाथेय बना चुके थे। बहिने भी साहित्य रूचि रखती थी।
में बचपन से ही घर में किसी को पात्र लिखती तो कविता में लिखती थी। सन १९५८ की बात है | मैंने एक पत्र कविता में रुसी भाई बहिनो के नाम , मित्रता का हाथ बढ़ाते हुए , लिखा था। मेरा वह पत्र मेरे पिता श्री ने मेरे चित्र सहित रूस भिजवा दिया था। पत्र रुसी भाषा में अनूदित कर मॉस्को से निकलने वाले दैनिक पत्र में प्रकाशित किया गया , उसके उत्तर में मुझे बारह हजार रुसी भाई बहिनो के पत्र , चित्र , पुस्तकें एवं ढेरों उपहार प्राप्त हुए। मेरे लिए ये प्रेरणा का क्षण बन गया और साहित्य सृजन मेरा भीष्म संकल्प।
2. पसंदीदा व्यंजन :
मुझे व्यंजन नहीं , सात्विक भोजन पसंद है जो शरीर कको ऊर्जा देता है।
3. अगर अपनी जिंदगी फिर से जीने का मौका मिले तो क्या बदलना चाहेंगे?
मै सब कुछ ज्यों का त्यों चाहूंगी। इसलिए की जो इस जीवन में नहीं कर पाई, वो अगले जीवन में पूरा कर सकूँ। बाधाजनक परिस्थियाँ फिर न आये वो चाहूंगी। वैसे मेरे लिए सारी स्थितियाँ समान रही है। जो मेरे गीतों में दृष्टिगोचर होता है।
" जो कुछ आता है जीवन में ,
गीत बना कर ग देती हूँ। "
4. आपके बचपन का सबसे यादगार किस्सा क्या है?
मेरे घर में मेरे पिता श्री के पास प्रायः कवि और लेखकों का जमावड़ा रहता था। साहित्यिक गोष्ठियां हुआ करती थी। एक बार एक हास्य कवि श्री चतुरेश जी आये। ये बुंदेलखंडी के कवि थे और बोलते भी बुंदेलखंडी थे। दैवयोग से ईश्वर ने भी इनकी रचना हास्य के मुड में ही की थी। भारी भरखम स्थूल शरीर। आगे को निकला हुआ पेट जो उनके लिए मेज का कम करता था। चतुरेश जी ने मुझे देखा और मैने उनको आश्चर्य से देखा। वे बोल पड़े " आ मौडी आ , तोखा कविता सुनाव। " मैंने बैठते हुए कहा " सुनाइए ".
चतुरेश जी ने सुनना शुरू किया -
" चतुरेश हमारी बात सुनौ,
दो एक नहीं , छे सात सुनौ। …"
मै मुश्किल से ही उनकी कविता सुन सकी और अपने बाल सुलभ चांचल्य का प्रदर्शन करते हुए बोल पड़ी -
" ये भी कोई कविता है ऐसी तो मै भी लिख सकती हूँ। "
चतुरेश जी ने मुझे चुनौती दी - " अच्छा जा लिख के ला, देखो का लिखत है। "
मै ने कागज पैन उठाया और लिखना शुरू कर दिया।
" चतुरेश हमारी बात सुनौ ,
दो एक नहीं , छे सात सुनौ।
किस चक्की का पीसा खाते,
इतने मोटे होते जाते,
बने पुलिंदा बिस्तर के हो,
कौन तुम्हारी जात सुनौ।
कविता पढ़ते टर टर करते ,
सारे नभ में स्वर हो भरते ,
मेढक का है धोखा होता ,
जैसे हो बरसात सुनौ। .......
चार छंद की कविता दस मिनट में लिख के चतुरेश जी की सुना दी। फिर तो हास्य का जो दौर शुरू हुआ वो वर्षो तक चलता रहा। मैंने चतुरेश जी पर खूब कविताये लिखी और हास्य पाठ करने के खूब अवसर पाये।
5. जीवन का सबसे खुशी का पल :
तब था जब उ. म. क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र इलाहाबाद के तत्वावधान में , गंगटोक में आयोजित सर्वभाषा कवि सम्मलेन में हिंदी का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला। ख़ुशी की बात यह थी की प्राकृत के सौंदर्य की प्रशंषक , गंगटोक की यात्रा कर पाई। उस पर साहित्यिक यात्रा जो मेरे लिए और अधिक महत्त्वपूर्ण थी। कवि सम्मलेन में भी मेरी कविता सर्वाधिक सराही गई।
6. प्रकाशित रचनायें :
राष्ट्रीय तथा आंतर राष्ट्रीय पत्र - पत्रिकाओ में अभी तक बहुत सारी कविताए , रचनाएँ , वक्तव्य और ग़ज़लें आदि प्रकाशित होती आई है।
अभी तक प्रकाशित पुस्तके चार है।
१) विजय गिथिका
२) बून्द बून्द मन
३) आँखिया पानी पानी
४) जग में मेरे होने पर
7. सबसे ज्यादा डर किससे अथवा किस बात से लगता है?
मेरी रचना है -
मै न किसी से जग में डरती,
देख डॉक्टर साहब को, पर
बिना मौत के मरती।
----- यही सच है।
8. जिंदगी से क्या चाहते हैं:
अगर मै जिंदगी को कुछ देना चाहू तो ?
मैंने लिखा है ,
" जिंदगी तेरे लिए गीत सहारे होंगे ,
मै जो गाऊँगी बहारों के संवारे होंगे।
क्या हुआ गर फँसी कश्ती तेरी तूफानों में ,
वो जिधर जायेगी उस ओर किनारे होंगे।
बंद करदे तू विभा अपने गमो का खाता ,
याद कर दिन वो जो खुशियों में गुजरे होंगे।
9. प्रतिलिपि के विषय में आपके विचार :
साहित्य और साहित्यिक सरोकारों के लिए प्रतिबद्ध आपका मंच मुझे अत्यंत रोचक लगा क्योंकि यह कीस भी प्रकार के भेद हाव से दूर केवल साहित्य की ुणवत्ता पर उसका मूल्यांकन करती है। साहित्य के साथ न्याय करने वाली पत्रिकाए गिनती मे है। अधिकांश प्रकाशन संस्थाए व्यावसायिक है और स्तरीय साहित्यो से उन्हें कुछ लेना देना नहीं है।
मै प्रतिलिपि के उत्तरोत्तर प्रगति के लिए कामना करती हूँ की वह पने उच्च स्तर के साथ साहित्य जगत में स्थायित्व प्राप्त करे।
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