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प्रतिलिपि के मंच पर हिन्दी साहित्यकार एवं आत्मीय स्वजन श्री राजेन्द्र बहादुर सिंह ' राजन ' / A short interview of Hindi writer Rajendra Bahadur Singh ' Rajan'
24 जनवरी 2015

 

 

 

 नाम : राजेन्द्र बहादुर सिंह 'राजन'

 जन्म दिवस : 10 जून सन 1954र्इ0

 मूल स्थान : ग्राम फत्तेपुर, पोस्ट-बेनीकामा, जिला- रायबरेली-229402 (उ.प्र.)

 शैक्षिक उपाधि  : इण्टरमीडिएट, इलेक्ट्रानिक्स इंजीनियरिंग में डिप्लोमा

 

1.  स्वभाव :

 सामान्य, सरल

 

2.  खास शौक  : 

साहित्य सृजन, अध्ययन, आध्यातिमक साधना

 

3. पसंदीदा साहित्य विधा  : 

काव्य की हर विधा, उपन्यास, लघुकथा, लेख, एकांकी।

 

4. प्रकाशित  रचनाएं  :

राष्ट्रीय स्तर की अधिकांष पत्रिकाओं में नियमित प्रकाशन , कर्इ प्रतिष्ठित संकलनों में रचनाएं प्रकाषित। प्रकाशित पुस्तकों में- भातृहरि (खण्ड काव्य), हिमालय की पुकार (काव्यकृति), बादल के अलबेले रंग (बाल गीत संग्रह), कदम्ब (हाइकु संग्रह) कविता की तलाश  (काव्य संग्रह), मीरा (खण्ड काव्य) गीत हमारे सहचर (गीत संग्रह), जिन्दगी के रंग (गज़ल संग्रह), चन्दन विष (उपन्यास), प्रायश्चित  (उपन्यास), ढार्इ आखर (उपन्यास), माटी की सौगन्ध (नाटय संग्रह), गुरुदेव की शरण में (संस्मरण), कवि और कविता (लक्षण ग्रन्थ)

 

5. पसंदीदा व्यंजन :

सेंवर्इ, आलू, मटर, टमाटर की सब्जी, कटहल की सब्जी।

 

6. अगर अपनी जिंदगी फिर से जीने का मौका मिले तो क्या बदलना चाहेंगे? 

अगर अपनी जिंदगी को फिर से जीने का मौका मिले तो मैं अपने भीतर की नकारात्मक ऊर्जा और कमियों को खोजकर उसे सकारात्मक ऊर्जा तथा सकारात्मक सोच मे बदलने का पूरा प्रयास करूँगा। वैसे मैंने जीवन में कर्इ बार हार से सीख लेकर जीत हासिल की है। तभी तो मैंने अपने अनुभव को एक रचना में कुछ इस तरह से व्यक्त किया है-

''खुद ही मार्ग बनाना पड़ता, उस पर चलकर जाना पड़ता। जीवन पथ के अधंकार में, दीपक स्वयं जलाना पड़ता। यह मन ही दीपक है।

 

7. आपके बचपन का सबसे यादगार किस्सा क्या हैं?

 बचपन के दो-तीन किस्से याद हैं, जिनमें से एक के विषय में बता रहा हू। उस समय आठ-दस वर्ष का रहा हूगा। तब गाव के बच्चे जांघिया (नेकर), बनियान पहनकर गाव में इधर-उधर टहलते थे। मैं भी एक दिन शाम को जांघिया बनियान पहने अपने घनिष्ठ मित्र दल बहादुर सिंह के यहा उनके साथ रामचरित मानस की चौपार्इ पढ़ने में इतना ध्यानमग्न हो गया कि पता ही न चला कब काला सांप आकर मेरी बगल में कुण्डली मारकर बैठ गया। ज्यों ही वह मेरी जांघिया के पास जांघ का स्पर्श करने लगा, उसकी गुदगुदाहट से अनजाने में ही मैंने उसे हाथ से पकड़कर बाहर उछाल दिया। जब उस पर दृषिट पड़ी तो उसे देखते ही हमारे और हमारे मित्र के होष उड़ गये। यधपि सांप घर से निकलकर रेंगता हुआ दरवाजे के पास आ गया था। हम लोग डर से कांप गये थे। मित्र के पिताजी ने उसे लाठी से पीटकर मार डाला। जब मित्र के पिता जी उसे लाठी से मार रहे थे तो मेरा भय दुख में बदल चुका था। मैं सोच रहा था कि इसने मुझे काटा भी नही फिर भी बेचारा मारा जा रहा है। वह घटना आज भी याद है।

 

8.  वे कौन सी तीन चीजे हैं जिनके बिना आपका जीवन अधूरा है?

जो तीन चीजें अभी तक मुझे प्राप्त नही हुर्इ और जिनके बिना जीवन अधूरा है, वे हैं- 1- आत्म ज्ञान 2- आत्म प्रकाश  3- आत्मानन्द

 

9.  आपके जीवन में किन तीन लोगों ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया है?           

1- मेरे माता-पिता स्व. श्रीमती फूलराज देवी एवं स्व. हौसला सिंह  2- मेरे साहितियक एवं आध्यातिमक गुरु- स्वामी गीतानन्द गिरि (पूर्व नाम श्री शम्भुदयाल सिंंह 'सुधाकर') 3- साहित्य सृजन की प्रारमिभक प्रेरणा स्रोत- 1- श्रीमती इन्द्रावती (पत्नी) 2- श्रीमती प्रेमा (अभिन्न मित्र) दल बहादुर सिंह की पत्नी 3- श्रीमती सुमन (अनुज वधू) वैसे मेरी प्रथम रचना के प्रेरणा स्रोत राष्ट्र कवि मैथिलीषरण गुप्त थे।

 

10. प्रतिलिपि के विषय में आपके विचार?

 सूचना क्रांति  के इस अर्थ प्रधान युग में जबकि भागमभाग की जिंदगी है। साहित्यिक  पुस्तकों की पाठकीयता में बहुत कमी आयी है जिसके अनेक कारण हो सकते है । कारण कोर्इ भी हो किन्तु पाठकीयता घटने से जहा समाज दिशाविहीन  होता है, वहीं साहित्यकार का मनोबल भी कमजोर पड़ता है। साहित्य समाज का दर्पण ही नही, मानवीय मूल्यों का स्थापक एवं दिशावाहक भी है। हिन्दी साहित्य अन्य सभी भारतीय भाषाओं के नवोदित, स्थापित तथा स्मृति शेष  साहित्यकारों की पुस्तकेां को इंटरनेट के माध्यम से राष्ट्रीय- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पाठकों को पाठकीय लाभ पहुचाने का जो अति शुभ कार्य 'प्रतिलिपि' विगत कर्इ माह से सेवाभाव से कर रहा है, उसमे उसे इतने कम समय में जो अभूतपूर्व सफलता मिली है, उसके लिये प्रतिलिपि संस्था के सभी समर्पित कर्मयोगी प्रशंषा  एवं बधार्इ के पात्र है। भारतीय सभी भाषाओं के साहित्य के प्रचार-प्रसार का आधुनिक तकनीक से जुड़ा यह सर्वथा अनूठा, अभिनव प्रयोग -  समाज, साहित्य और साहित्यकार तीनों के लिए हितकर होगा। मुझे पूर्ण विश्वास  है कि पाठकों एवं साहित्यकारों के निरन्तर अधिक से अधिक संख्या में प्रतिलिपि से जुड़ने से भविष्य में इसका विकास तीव्रतर गति से होगा। प्रतिलिपि के उज्ज्वल भविष्य के लिये ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ। मेरा आशीर्वाद  और मेरी मंगल कामनायें प्रतिलिपि के साथ सदा रहेंगी।

 

पाठकों के लिये संदेश  :        

पुस्तकें ज्ञान-विज्ञान की पाठशालाएँ  होती हैं। अध्ययन से जीवन की दिशा और दशा  बदल जाती है। दौड़ धूप और आपाधापी के इस युग में ढेर सारी पुस्तकें खरीदना, यात्रा के समय या आफिस में उन्हें अपने साथ रखना पाठकों के लिए टेढ़ी खीर है। फिर मन पसंद पुस्तकें हर समय, हर जगह मिल भी नही पाती। इसलिये पाठक चाहे साहित्यकार हो या साहित्य प्रेमी, हर पाठक को प्रतिलिपि से जुड़कर इंटरनेट (अन्तर्जाल) के माध्यम से अपना ज्ञानार्जन बढ़ाना चाहिए। यह एक ऐसी अनोखी व्यवस्था है जिसके उपयोग से हर वर्ग का पाठक अपनी रुचि के अनुरूप साहित्य हर जगह हर अवस्था में पढ़ सकता है। जितने पाठक प्रतिलिपि से जुड़े हैं, उन्हे बधार्इ और जो अभी तक नही जुड़े उनसे आग्रह कि वे अपने मित्राें सहित इससे जुड़े।

 

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