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आज के मेहमान हिन्दी लेखक एवं साहित्यकार डॉ. मनोज 'मोक्षेंद्र' / A short interview of Hindi writer Dr. Manoj ' Mokshendra'
02 फ़रवरी 2015

 

नाम: डॉ. मनोज श्रीवास्तव 'मोक्षेंद्र'

जन्मदिवस: 8 अगस्त

मूलस्थान: वाराणसी

शैक्षिक उपाधि: पी-एच.डी. (अंग्रेज़ी साहित्य)-बी.एच.यू. से

 

1. स्वभाव :

यह कैसे बताया जाए? यदि मैं अपने स्वभाव के बारे में कुछ अच्छी बातें बताऊं  तो सुनकर अच्छा नहीं लगेगा। यह कुछ-कुछ आत्म-श्लाघा जैसा होगा। फिर भी जब आप मेरे स्वभाव के बारे में कुछ जानना चाहते हैं तो बताने का प्रयास अवश्य करूंगा। दरअसल, मैं बचपन से ही अत्यंत अंतर्मुखी और शर्मीला रहा हूँ। मुझे याद है कि जब दोपहर को मेरी माँ की सहेलियाँ घर आती थीं तो उनके जाने तक मैं आलमारी के पीछे या बेड के नीचे अथवा सीढ़ियों के नीचे छुपा रहता था। उस समय मेरी उम्र रही होगी कोई तीन-चार साल की। हाँ, एक ख़ास बात यह है कि कोई चार वर्ष तक मेरा स्वर नहीं फूटा था। घर में सभी यह जानकर दुखी थे कि मैं गूंगा हूँ; पर, मेरी श्रवण-शक्ति तेज थी। हाँ, सारी बातें सुनकर समझ लेता था; लेकिन, प्रतिक्रिया ऊँ-आऊँ कहकर ही करता था। मुझे बचपन की वह स्थिति अच्छी तरह याद है। बहरहाल, इसे कोई करिश्मा या चमत्कार कहना चाहिए कि अचानक, चौथे वर्ष के समाप्त होते-होते न केवल मेरी ज़बान फूटी बल्कि मैं धारा-प्रवाह बातचीत भी करने लगा। चूंकि मेरी प्रारंभिक शिक्षा नहीं हुई थी, इसलिए पढ़ाई की शुरुआत घर पर ही हुई। मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैं कोई छः वर्ष का रहा हूंगा तो प्रेमचन्द्र, विमल मित्र, सुदर्शन जैसे लेखकों की अधिकतर कहानियाँ पढ़ डाली थीं। सुदर्शन की 'साइकिल की सवारी' उसी समय पढ़ी थी। प्रेमचन्द्र की कहानी 'ईदगाह' भी। मेरे ऊपर इस कहानी का प्रभाव इतना अमिट पड़ा था कि आज भी उस कहानी के सारे प्रसंग मुझे अच्छी तरह याद हैं जबकि बड़े होने पर उस कहानी को दोबारा पढ़ने की ज़ुर्रत कभी महसूस नहीं की। हाँ, उसी उम्र में मुझे रचना करने का शौक भी एक संक्रामक रोग की तरह लग गया था। मुझे याद है कि मैंने एक कविता 'खटमल' पर लिखी थी। वह कविता संभवतः मेरी पहली कविता थी। 

 अस्तु, आज भी मैं उसी तरह हूँ। यों तो, मैं बड़ॆ-बड़े मंचों पर भी कविता पाठ कर चुका हूँ; पर, अधिकतर ऐसे आमंत्रणों को मैं नज़रअंदाज़ कर देता हूँ। अभी मध्य प्रदेश, कर्णाटक और महाराष्ट्र से आमंत्रण था। लेकिन, मैं नहीं गया। पर, अब मैं संकल्प लेता हूँ कि ऐसे आमंत्रणों में अवश्य जाऊँगा।  

 

2. लोकप्रिय व्‍यक्ति :

मैं स्वामी विवेकानन्द के व्यक्तित्व से प्रथमतः प्रभावित रहा हूँ। मैं समझता हूँ कि पिछले दस हजार वर्ष से उन जैसी शख्सियत इस पृथ्वी पर पैदा नहीं हुई है। उनका जीवन-दर्शन, उनका वैश्विक नज़रिया, भविष्यलक्षी दृष्टिकोण, मनुष्य से मनुष्य को जोड़ने की अथक कोशिश आदि-आदि बेहद लोमहर्षक रही है। अपने विलक्षण नज़रिए की वज़ह से वह सभी धर्मों और विचारधाराओं के पोषक हैं। उनका पूरा जीवन एक मूल्यवान साहित्य है। आम आदमी, दलित जन, अबला, रोगी, भिखारी और इस पृथ्वी के सभी उपेक्षित जन उनकी सहानुभूति के व्यापक परास में समा जाते हैं। उन्होंने कभी किसी के साथ भेदभाव नहीं किया। शायद, उनका मूल्यांकन अभी-भी अधूरा है। उनके विराट व्यक्तित्व के सामने पिछली और वर्तमान सदी का कोई भी युगपुरुष कहा जाने वाला व्यक्ति, भले ही ही उसे ईश्वर का दर्ज़ा दिया जा चुका हो, बौना नज़र आता है। उन्होंने अंग्रेज़ी में कई कविताएं भी लिखी हैं--वे बेजोड़ हैं, भारतीय संस्कृति की उन्नायक हैं। उनके पत्र जिन पर अभी तक कोई ख़ास चर्चा नहीं हुई है, वैश्विक साहित्य की अमूल्य निधि हैं। बहरहाल, आज के आम आदमी को उनके बारे में कोई ख़ास जानकारी नहीं है। क्यों न उनके साहित्य को वैश्विक समाज के सामने लाया जाए?

 

3. साहित्य प्रेरणा :

यह तो जन्म से है। प्रेरणा-स्रोत विवेकानन्द जैसी शख़्सियत ही रही है। अस्तु, मेरी माँ {श्रीमती (गोलोकवासी) विद्या श्रीवास्तव जिनके पूर्वज दक्षिण भारत के विजयनगरम राजवंश में राजदरबारी हुआ करते थे} के महान व्यक्तित्व का प्रभाव भी मेरे ऊपर रहा है। वह विदुषी महिला थीं; वैचारिक रूप से अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण रखती थीं। समाज में अत्यंत सम्मानित थीं। साहित्य अनुशीलन में सदैव दत्तचित्त रहती थी। धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेती थीं। मुझे गर्व है कि मैं ऐसी माँ का बेटा हूँ। बहरहाल, मैंने देश-विदेश के असंख्य साहित्यकारों को पढ़ा है। अमरीका के शेक्सपीयर कहे जाने वाले यूजीन अ' नील पर मैंने रिसर्च किया है। यूजीन अ' नील विशेषकर भारतीय विचारधाराओं से प्रभावित थे। स्ट्रेन्डबर्ग, नीत्शे, मैक्समूलर, शोपेनआवर, ज़रथ्रुस्ट, टी एस इलियट, आई ए रिचर्ड्स, वर्ड्सवर्थ, शेक्सपीयर, वाल्ट व्हिटमैन, एड्गर एलेन पो, मैथ्यू ऑर्नाल्ड, दोस्तोवस्की, फ़्रायड, युंग आदि जैसे विदेशी विचारकों के साहित्य के अनुशीलन के अतिरिक्त भारत के सभी साहित्यकारों को शिद्दत से पढ़ा है। चुनांचे, प्रेमचन्द्र के साहित्य ने मुझे विशेष प्रभावित किया।

 

4. आपके लिये साहित्य की परिभाषा :

सामान्य शब्दों में कहा जाय तो साहित्य जनसामान्य के अनुभवों का सार होता है; ऐसे अनुभवों को जब कोई रचनाकार जीता है तो उसकी परिणति एक आदर्श साहित्य के रूप में होती है। बेशक, साहित्य समाज का जीवंत दर्पण होता है। दूसरे शब्दों में साहित्य सामाजिक जीवन की प्रतिकृति है जिसे कलाकार अपने-अपने ढंग से चित्रित करता है। साहित्य में रचनाकार की स्वयं की हताशाओं, कुंठाओं के लिए कोई जगह नहीं होती। सबसे अच्छा साहित्य वह है जिसमें पर-पीड़ा को उजागर किया गया हो। साहित्य समाज का संश्लेषण करता है, न कि उसका भंजन, जैसाकि आज देखने में आता है।

 

5. जीवन का सबसे खुशी का पल :

मुझे जहाँ तक याद है, ऐसा कोई पल मेरे सामने नहीं आया। दुःख, चिंता, तनाव, कुंठा, हताशा, अतृप्ति मेरे जीवन में बहुतायत से हैं।

 

5. प्रकाशित रचनायें :

देश-विदेश की पत्रिकाओं में कोई दो-ढाई हजार रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त, तीन-तीन कहानियों और कविताओं के संग्रह, एक व्यंग्य संग्रह, एक अंग्रेज़ी नाटक, कुछ हिंदी नाटक प्रकाशित हैं। कुछ रचनाओं का प्रकाशन विभिन्न लेखकों के द्वारा भी किया गया है। कुछ सम्मान भी मिले हैं। पत्रिकाओं का संपादन भी किया है। अपनी एक पत्रिका 'वी विटनेस' (वाराणसी) का समूह संपादक हूँ। इसके प्रधान संपादक श्री प्रतीक श्री अनुराग हैं।

 

6. मनपसंद TV प्रोग्राम :

मेरा कोई मनपसंद टीवी प्रोग्राम नहीं हैं। दरअसल, टीवी देखता ही नहीं। हाँ, कभी-कभार कुछ न्यूज़ चैनल देख लेता हूँ। टीवी के फ़ूहड़ साहित्य के प्रति मेरी भीषण जुगुप्सा है।

 

7. प्रिय पुस्‍तक/रचनाकार :

इसकी एक लंबी फ़ेहरिस्त है। बता नहीं सकता।

 

8. सबसे ज्यादा डर किससे अथवा किस बात से लगता है : 

ज कार्य मुझे मेरी माँ सौंपकर गोलोकधाम चली गई, उन्हें पूरा न कर पाने का मलाल है। डर इस बात का है कि जब मरकर माँ के पास जाऊंगा तो उन्हें क्या जवाब दूंगा। मेरी छोटी बहन मृदुला का अचानक असामयिक निधन 3 दिसंबर, 2014 को हो गया। उसे न बचा पाने का डर मुझे खाए जा रहा है।

 

9. जिंदगी से क्या चाहते हैं :

यह बेतुका सवाल है। ज़िंदगी किसी को क्या दे सकती है, सिवाय कुछ तकलीफ़देह साँसों के? बस, यदि कोई शक्ति है तो वह मुझे ऐसा सामर्थ्य दे कि शेष जीवन लोगों की सेवा में गुजरे और मेरे हाथों से या मेरी वज़ह से किसी का कोई बुरा न हो। हाँ, यह भी चाहता हूँ कि मेरा साहित्य देश-विदेश में शौक से और गंभीरता से पढ़ा जाए।

 

10. प्रतिलिपि के विषय में आपके विचार :

प्रतिलिपि एक अच्छा उपक्रम है। मेरी कामना है कि प्रतिलिपि के पन्ने साहित्य का मानकीकृत दस्तावेज़ बने।

 

पाठकों के लिये संदेश :

पाठकों से बस यही कहूंगा कि वे टीवी, कम्प्यूटर और सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के गंदे साहित्य से तौबा करें और साहित्य और ख़ासकर हिंदी साहित्य पढ़ने का ज़ज़्बा स्वयं में पैदा करें। टीवी, कम्प्यूटर और सभी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को अन्य कार्यों में अपनी कार्य-क्षमता बढ़ाने में प्रयुक्त करें। भारतीय संस्कृति के समीप आएं और उद्दंड तहज़ीबों से तौबा करें।

 

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